Saturday, February 28, 2009

बस ऐसे ही !


मैं तुम्हारा नहीं हूँ ,ये बात तो मैं भी जानता हूँ.
मेरी तकलीफ ये है कि, ये बात तुम कहते क्यों हो.

ये तमाम ज़ख्म तो मोहब्बत में मैंने पाए हैं,
अजीब शक्स हो तुम, इस दर्द को सहते क्यों हो.

तेरी यादों पे जब मुझे कोई इख्तियार नहीं,
ये बताओ के फिर तुम मेरे दिल में रहते क्यों हो .




Wednesday, February 11, 2009

ज़ख़्मों की तहरीरें

हाथ में इबारतें,लकीरें थी
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरे थी. 
  
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था, 
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थी. 
 
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे, 
उनके हाथों में मगर शमशीरें थी. 
 
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थी. 
 
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को, 
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थी. 

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On 12 Feb 09.
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थी. 

इस शेर के दो नये अंदाज़ पेश करता हूं:

खुदा बना के जिन्हें,किया ता उम्र सज़दा,
वख्त-ए-आख़िर पाया,वो झूंठ की ताबीरें थी

और एक इस तरह के:

दोस्तो को खुदा बना के,किया उम्र भर सज़दा,
वक़्त-ए-बद में ये जाना,वो झूंठ की ताबीरें थीं.




Monday, February 9, 2009

दर्द की मिक़दार और उसकी मज़बूरी.(Sequel)


'दर्द की मिक़दार'(post @25.1.09 के सिलसिले मे आज लिखे गये नये शेर:

मचलता बच्चा भी जानता है,ग़रीब माँ की मज़बूरी,
ज़िद हो,के ना हो पूरी,कुछ देर में बहलना होगा. 
 
ये रास्तों का सच नही,दस्तूर-ए-दुनियाँ है, 
अपनी ठोकर से जो गिरते है,उन्हें खुद ही संभालना होगा.