Tuesday, March 24, 2009

अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !(Part I)



आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं पाउंगा।

जो हैं गहराई में, मिलुगां  उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।

दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बद्दुआ बनके  कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।

जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।

मेरी आज़ाद पसन्दी का, लो ये है सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।

मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।

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आबे दरिया       : नदी का पानी
आज़ाद पसन्दी : Independent Thinking(nature)
फ़लसफा          : Philosophy


1 comment:

  1. Kabhi, kabhi seedhe dilse nikale, bebak alfaaz, gazabke asardaar hote hain...."samandarki gehrayi manzoor hai, aasmaanon ki oochaayee kyon haasil karen..?
    Waqayi aapne "behichak" apneaapko wyakt kiya hai...kavita ek madhyam hai jahan behichak abhiwyakti hoti hai, any madhyamonke banisbat...waise mai na kavi hun na lekhika..!

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