Tuesday, June 9, 2009

नज़दीकियों का सच!


दूरियां खुद कह रही थीं,
नज़दीकियां इतनी न थी।
अहसासे ताल्लुकात में,
बारीकियां इतनी न थीं।

चारागर हैरान क्यों है,
हाले दिले खराब पर।
बीमार-ए- तर्के हाल की,
बीमारियां इतनी न थीं।

रो पडा सय्याद भी,
बुलबुल के नाला-ए- दर्द पे।
इक ज़रा सा दिल दुखा था,
बर्बादियां इतनी न थीं।

उसको मैं खुदा बना के,
उम्र भर सज़दा करूं?
ऐसा उसने क्या दिया था,
मेहरबानियां इतनी न थीं।



3 comments:

  1. भैया बुरा न मानें तो-
    शेर कुछ इस तरह बनता है-

    चारागर हैरान क्यों है,
    हाल-ए-दिल नाशाद पर,
    दर्द के इस हाल में,
    बीमारियाँ इतनी न थीं।

    आपकी कविता के भाव बहुत बढ़िया हैं।

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  2. Dr साहिब,
    तारीफ़ के लिये तहे दिल से शुक्रिया.
    गर आपको शेर ऐसे अच्छा लगता है तो आप ऐसे ही पढें.मैं तो बस कह गया जैसे कहने में मज़ा आया.’सच में’पर आते रहें और आशिर्वाद बनाये रखें.

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  3. उसको मैं खुदा बना के,
    उम्र भर सज़दा करूं?
    ऐसा उसने क्या दिया था,
    मेहरबानियां इतनी न थीं।...zmana tumhe kuch bhi kahe humne tumhe khuda kah diya..khud ko khuda hi samjhne lage kya khuda ban gye jo khuda kah diya?...aisa hi kuch hai na...

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