Monday, July 27, 2009

उफ़्फ़क पे जाके शायद, मिल जाते,
मैं अगर आसमां, और तू ज़मीं होता

इस दुनियां में सब मुसाफ़िर हैं,
कोई मुस्तकिल मकीं नही होता
.


सौ बार आईना देख आया,
फ़िर भी क्यूं खुद पर यकीं नही होता.


दिल के टुकडे बहुत हुये होगें,
यूं ही कोई गमनशीं नहीं होता!

4 comments:

  1. उफ़्फ़क पे जाके शायद, मिल जाते,
    मैं अगर आसमां, और तू ज़मीं होता

    इस दुनियां में सब मुसाफ़िर हैं,
    कोई मुस्तकिल मकीं नही होता.


    सौ बार आईना देख आया,
    फ़िर भी क्यूं खुद पर यकीं नही होता.

    दिल के टुकडे बहुत हुये होगें,
    यूं ही कोई गमनशीं नहीं होता!

    sabhi sher ek se badh kar ek..
    waah waah...
    aur ab mulahija farmaiye...

    ग़मों का जायज़ा गर लेना हो तो देख
    मेरा दामन अश्कों से तर है के नहीं

    ज़ख्मों को मेरे कब तक गिनते रहोगे
    तेरी नज़र में तेरी शरर है के नहीं

    अपना दीन-ओ-ईमान मैंने लुटा दिया
    देखूं उसपर कोई असर है के नहीं

    जंगल की आग ने सबकुछ जला दिया
    जाने उसे मेरे घर की खबर है के नहीं

    अंधेरों से बावस्ता हो गयी ज़िन्दगी
    इन अंधेरों की कोई सहर है के नहीं

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  2. मैंने इस रचनापे पहले भी दो बार टिप्पणी दी थी ...!

    "उफ़्फ़क़ ' क्षितिज को कहते हैं , आज समझ में आया ..." ये लिखा था ..पता नही वो टिप्पणी क्यों अवतरित नही हुई ?

    रचना हमेशा की तरह, निहायत खूबसूरत है...आपकी रचनायों पे मुझे 'सच' में टिप्पणी देनी नही आती...!

    http://shamasansmaran.blogspot.com

    http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com

    http://kshama-kahanee.blogspot.com

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  3. मुझे ये गज़ल खास लगी क्योंकी मैनें भी ऐसा ही कुछ अपनी कविता में महसूस किया था.


    जैसे ये धरती आकाश

    वैसे हम भी होते काश

    आपकी शायरी मुझे पसन्द है ,ये कहना obvious है.Will keep coming back.

    I am putting you up on my blogroll so i don't miss out for a long time.

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