Tuesday, May 29, 2012

संवेदनहीन

अतृप्त आत्मा ,

भूखे जिस्म और उनकीं ज़रूरतें तमाम,

मन बेकाबू,

और उसकी गति बे-लगाम,

अधूरा सत्य,

धुन्धले मंज़र सुबुह शाम,


क्या पता? कब और कैसे आये मुकम्मल सुकूं,

और रूह को आराम!

10 comments:

  1. भाई, इसी खोज में तो सारी कायनात, सारे धर्म-मजहब, सारे दार्शनिक-वैज्ञानिक लगे हैं| मालूम चले तो हमसे भी शेयर करना.

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  2. बेशक!! शाश्वत सुख ही उपाय है। वह आत्मा में ही बसा है पर सहज ही विश्वास नहीं होता!!

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  3. क्या पता? कब और कैसे आये मुकम्मल सुकूं,
    Waqayi nahee pata! Chhoti lekin gahri rachana.

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  4. ab rooh ko aram kahan. jab itne sare sawal...waise bhi ye jindagi kuch na kuch badalti hi rehti hai jeevan me ...sunder bhavabhivyakti.........

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  5. वाह क्या बात कही हैं ....बहुत खूब

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  6. इसी सकून की तलाश में शरीर घटता जाता है .. पर रूह को आराम नहीं मिलता और भूखा शरीर खत्म हो जाता है ..

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  7. बेहद खुबसूरत
    (अरुन =arunsblog.in)

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  8. तन-मन को इतनी तकलीफ तो रूह को सुकून कहाँ से आए? प्रश्न भी और उत्तर भी, सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई.

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