Tuesday, July 16, 2013

गाल का तिल!

मैं कब का,निकल आता 

तेरी जुदाई के सदमें से,

और भूल भी जाता तुझको,

मगर कुदरत की नाइंसाफ़ियों का क्या करूँ?

तुझे याद भी नहीं होगा,


वो ’मेरे’ गाल का तिल,


जिसे चूमते हुये,


तूने दिखाया था,


अपने गाल का तिल!

9 comments:

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    1. आपका शुक्रिया! पसंद करके हौसला बढाने के लिये!

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  2. बेहतरीन अभिवयक्ति.....

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  3. वाह .. क्या बात है ... तिल में छुपी यादों का अम्बार ...

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    1. दिगम्बर भाई! विरह और उसको न भूल पाने की पीडा शायद आप तक न पहुँच पाई!
      आपका अनेक धन्यवाद! दाद के लिये!

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  4. वाह वाह क्या बॅया है!

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  5. Pheli marteba phedha dil khush ho gya aysa legs her lefej dodh mai dhula ho

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    1. ’mustak hakim’ जी आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया, मेरे लफ़्ज़ों को सराहने के लिये.

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बेहिचक अपने विचारों को शब्द दें! आप की आलोचना ही मेरी रचना को निखार देगी!आपका comment न करना एक मायूसी सी देता है,लगता है रचना मै कुछ भी पढने योग्य नहीं है.So please do comment,it just takes few moments but my effort is blessed.