Saturday, September 21, 2013

फ़क़ीरी

खा़र होने की भी कीमत चुकाई है मैने
गुलों के जख्म जिगर में छुपाये फिरता हूँ!


कभी ज़ुल्फ़ों की छाँव में भी पैर जलते हैं
कभी सेहरा को भी सर पे उठाये फ़िरता हूँ!


अजीब फ़िज़ा है शहर की ये मक़तल जैसी
बेगुनाह हूँ मगर मूँह छुपाये फ़िरता हूँ!


लूट लेंगे सब मिल कर शरीफ़ लोग है ये,
शहर-ए- आबाद में फ़कीरी बचाये फ़िरता हूँ!