Monday, November 14, 2022

वो क़तरा जो लहू बन के  सरकता है,

वो जो गीत धड़कनों में लरजता है,


घडी के काँटों में जो वख़्त बनके खटकता है,

नका़ब बनके जो रूखसार से सरकता है,


घनक बन के कभी बादलों में उभरता है,

बयार बने के कभी,दहलीज़ से गुज़रता है,


अश्क बन जाता है और आँख से छलकता है,

याद बन के कभी फाँस सा खटकता है,


बन के हिचकी कभी हलक़ में अटकता है,

जिस्म बन के कभी पहलू में महकता है,


ख्याब बन के कभी नींद में मटकता है,

बूंद बन के जो कभी जुल्फ से झटकता है,


एक आवारा सा तेरे कूचे में भटकता है,

इश्क है, इश्क है इश्क है।© 2018

किनारे समुन्दर के भरा रेत मुठ्ठी से जो सरकता है,

इश्क है,इश्क है, इश्क ही है। _अभी अभी (2022)

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