मैं कभी करता नहीं दिल की भी बात,
पूछते हो मुझसे क्यूं,महफ़िल की बात?
दिलनशीं बुतो की परस्तिश तुम करो,
हम उठायेगें, यहां संगदिल की बात।
ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!
कत्ल मेरा क्यों हुया? तुम ही कहो,
मैं जानूं!क्या थी,भला कातिल की बात?
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
ये सब हैं चाहने वाले!और आप?
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Friday, March 26, 2010
Monday, March 22, 2010
तलाश खुद अपनी!
इन्तेहा-ए-उम्मीदे-वफ़ा क्या खूब!
जागी आंखों ने सपने सजा लिये।
मौत की बेरुखी, सज़र-ए-इन्सानियत में,
अधमरे लोग हैं,गिद्दों ने पर फ़ैला लिये।
चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये!
Friday, January 29, 2010
मुगाल्ते
मै नहीं मेरा अक्स होगा,
जिस्म नही कोई शक्स होगा.
ख्वाहिशें बेकार की है,
पानी पे उभरा अक्स होगा.
ज़िन्दगी अब और क्या हो,
आंखों में तेरा नक्श होगा.
गल्तियां मेरी हज़ारों,
तू ही खता बख्श होगा.
जिस्म नही कोई शक्स होगा.
ख्वाहिशें बेकार की है,
पानी पे उभरा अक्स होगा.
ज़िन्दगी अब और क्या हो,
आंखों में तेरा नक्श होगा.
गल्तियां मेरी हज़ारों,
तू ही खता बख्श होगा.
Friday, January 15, 2010
अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !
आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा.
जो हैं गहराई में, मिलुगां उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।
दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।
जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।
मेरी आज़ाद पसन्दी का, अश्क है एक सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
Thursday, December 31, 2009
नया साल! सच में!
ज़िन्दगी का नया सिलसिला कीजिये,
भूल कर रंज़-ओ-गम मुस्कुरा दीजिये.
लोग अच्छे बुरे हर तरीके के हैं,
खोल कर दिल न सबसे मिला कीजिये.
तआरुफ़-ओ-तकरार करने से है,
ये करा कीजिये, वो न करा कीजिये.
शेर कह्ता हूं फ़िर एक नये रंग का
मुझको यादों का नश्तर चुभा दीजिये.
साल आने को है, साल जाने को है,
खास मौका है इसका मज़ा लीजिये.
Tuesday, December 8, 2009
कोपन्हेगन के संदर्भ में!
मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.
जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.
नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.
मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.
पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!
मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.
अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.
नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.
आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?
कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.
कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.
शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.
और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?
Wednesday, December 2, 2009
तीरगी का सच!
Little late for anniversary of 26/11 notwithstanding रचना आप के सामने hai :
इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
मौला तू ,रास्ता दिखा अपने ज़माल से.
मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.
चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से.
लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से.
और ये दो शेर ज़रा मुक़्तलिफ रंग के:
ऐसा नहीं के मुझको तेरी याद ही ना हो,
पर बेरूख़ी सी होती है,अब तेरे ख़याल से.
दो अश्क़ उसके पोंछ के क्या हासिल हुया मुझे?
खुश्बू नही गयी है,अब तक़ रूमाल से.
Saturday, October 10, 2009
मानव योनि!
चौरासी लाख योनिओं में,
शायद ’प्रेत’योनि भी एक है!
या शायद नहीं है?
पता नही!
पर मैं ये जानता हूं कि,
हर देह धारी मनुष्य
प्रेत योनी का सुख उठा सकता है,
अरे आप तो हैरान हो गये,
प्रेत योनि और सुख?
जी हां!
दर असल ये समझना ज़रूरी है कि,
मानव योनि के कौन कौन से कष्ट है,
जो प्रेत योनि में नहीं होते.
सम्वेदना,लगाव,
स्नेह,विरह,कामना,
ईर्ष्या,स्पर्धा,लालसा,
भय,आवेग,करुणा,
आकांछा,और हां
"सब कुछ सच सच जान लेने की ख्वाहिश"!
ये कुछ ऐसी अजीबो गरीब भावनायें हैं,
जो इन्सान के कष्ट का कारण होती है,
प्रेत योनि में ये दुख कहां,
तभी तो मानव देह धारी हो कर भी,
प्रेत योनि की प्रसंशा करते हुये,
उसी की प्राप्ति की ओर अग्रसर हूं!
Monday, September 21, 2009
दरख्त का सच!
मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.
जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.
नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.
मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.
पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!
मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.
अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.
नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.
आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?
कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.
कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.
शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.
और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?
Friday, July 10, 2009
मेरा सच
पर खाम्खां सरे आईना यूंहीं जाता नहीं.
चापलूसी,बेईमानी,और दगा,
ऐसा कोई फ़न मुझे आता नहीं.
बात हो सकता है के ये कडवी लगे,
क्या करूं मैं,झूठं बोला जाता नहीं.
दिल तो करता है तुम्हें सम्मान दूं,
मेरी फ़ितरत को मगर भाता नहीं.
कैसे बैठूं मैं तुम्हारी महफ़िल में,
जब तुम से सच मेरा सहा जाता नहीं.
मत दिलाओ दिल को झूठीं उम्मीदें,
इश्क वालों से अब ज़िया जाता नहीं.
जा मरूं मैं दर पे जाके गैर के,
राय अच्छी है,पर किया जाता नहीं.
Monday, June 29, 2009
क्या ये सच है!
नया कुछ भी नहीं,ज़िन्दगी हस्बेमामूल चलती है.
लौ ख्यालों की है रौशन ,मोम उम्र की पिघलती है.
मै नहीं चाहता दुनियां से कुछ भी कहना,
जेहन में ,क्यों नदी अरमानों की मचलती है.
मैने चाहा ही नही ,तुझको कभी याद करूं,
बर्फ़ यादों की ये, क्यों नही पिघलती है.
सर्द यादों को तो तेरी,मै कब का दफ़न कर आया,
तपिश गमों की लहू बन के, मेरी रगो में फ़िसलती है.
मै तो गुज़र जाऊगां बरसात के मौसम की तरह,
काई मोहब्त की तो, दिल पे बाद में उभरती हैं.
Sunday, January 25, 2009
दर्द की मिक़दार
जहाँ से दर्द की मिक़दार क़म हो, ये करना होगा.
मसीहा कौन है ,और कौन यहाँ रह्बर है,
हर इंसान को इस राह पे, अकेले ही चलना होगा.
तेज़ हवाएँ भी हैं सर्द ,और अंधेरा भी घना,
शमा चाहे के नही उसे हर हाल में जलना होगा.
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मिक़दार:Quantity
रह्बर: Companion
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