ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

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Thursday, March 4, 2010

कल्कि और कलियुग!



बहुत सोचने पर भी ,समझ में तो नहीं आया,
पर मानना पडा कि,


काल कालान्तर से कुछ भी नहीं बदला,
मानव के आचरण में,
और न हीं देव और देव नुमा प्राणिओं के,


पहले इन्द्र पाला करते थे,
मेनका,उर्वषि आदि,
विश्वामित्र आदि को भ्रष्ट करने के लिये,
और वो भी निज स्वार्थवश,


और अब स्वंयभू विश्वामित्र आदि,
पाल रहे हैं,
मेनका,उर्वषि..........आदि, आदि
तथा कथित इन्द्र नुमा हस्तियों को वश मे करने के लिये.


बदला क्या....?
सिर्फ़ काल,वेश, परिवेश,और परिस्थितियां,
मानव आचरण तब भी, अब भी........
कपट,झूठं,लालच, आडम्बर,वासना, हिंसा और..




नश्वर एंव नापाक होते हुये भी,




स्वंयभू "भगवान" बन जाने की कुत्सित अभिलाषा.......

Wednesday, February 3, 2010

इकबाले ज़ुर्म!

जब मै आता हूं कहने पे,तो सब छोड के कह देता हूं,
सच न कहने की कसम है पर तोड के कह देता हूं,

दिल है पत्थर का पिघल जाये मेरी बात से तो ठीक,
मै भी पक्का हूं इबादत का,सनम तोड के कह देता हूं.

मै तो सच कहता हूं तारीफ़-ओ-खुशामत मेरी कौन करे,
सच अगर बात हो तो सारे भरम तोड के कह देता हूं.

भरोसा उठ गया है सारे मुन्सिफ़-ओ-वकीलो  से,
मै सज़ायाफ़्ता हूं ये बात कलम तोड के कह देता हूं. 

वो होगें और ’इल्म के सौदागर’ जो डरते है रुसवाई से,
मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के  चलन तोड के कह देता हूं.



Sunday, January 24, 2010

मजाक सच में

हालात से लोग मजबूर हो गये है,
निवाले उनके मुंह से दूर हो गये है.

इस कदर इस बात पे न ज़ोर डालो ,
नज़र दुरुस्त है,चश्मे चूर हो गये है

रोशनी ही बेच दी रोटी की खातिर,
तमाम चराग यहां बे नूर हो गये है

हाकिमों ने खुद ही आंखें मींच ली है,
ये सारे कातिल बे कूसूर हो गये है.



Friday, January 15, 2010

अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !

आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा. 


जो हैं गहराई में, मिलुगां  उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।


दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके  कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।


जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद  हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।


मेरी आज़ाद पसन्दी का, अश्क है एक सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।


मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।





Tuesday, December 8, 2009

कोपन्हेगन के संदर्भ में!

मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.


जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.


नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.


मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.


पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!


मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.


अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.


नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.


आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?


कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.


कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.


शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.


और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?




Wednesday, November 25, 2009

आम ऒ खास का सच!

मेरा ये विश्वास के मैं एक आम आदमी हूं,
अब गहरे तक घर कर गया है,
ऐसा नहीं के पहले मैं ये नहीं जानता था,

पर जब तब खास बनने की फ़िराक में,
या यूं कहिये सनक में रह्ता था,

यह  कोई आर्कमिडीज़ का सिधांत नही है,
कि पानी के टब में बैठे और मिल गया!

मैने सतत प्रयास से ये जाना है कि,
किसी आदमी के लिये थोडा थोडा सा,
"आम आदमी" बने रहना,
नितांत ज़रूरी है!

क्यों कि खास बनने की अभिलाषा और प्रयास में,
’आदमी ’ का ’आदमी’ रह जाना भी
कभी कभी मुश्किल हो जाता है,
आप नहीं मानते?

तो ज़रा सोच कर बतायें!
’कसाब’,’कोडा’,’अम्बानी’,’ओसामा’,..........
’हिटलर’ .......... .........  ........
..... ......
आदि आदि,में कुछ समान न भी हो

तो भी,

ये आम आदमी तो नहीं ही कहलायेंगे,
आप चाहे इन्हे खास कहें न कहें!

पर!

ये सभी, कुछ न कुछ गवां ज़रुर चुके हैं ,

कोई मानवता,
कोई सामाजिकता,
कोई प्रेम,
कोई सरलता,
कोई कोई तो पूरी की पूरी इंसानियत!



और ये भटकाव शुरू होता है,
कुछ खास कर गुज़रने के "अनियन्त्रित" प्रयास से,
और ऐसे प्रयास कब नियन्त्रण के बाहर
हो जाते हैं पता नहीं चलता!

इनमें से कुछ की achivement लिस्ट भी
खासी लम्बी या impressive हो सकती है,
पर चश्मा ज़रा इन्सानियत का लगा कर देखिये तो सही,
मेरी बात में त्तर्क नज़र आयेगा!


Sunday, November 15, 2009

बेवफ़ाई का सच!





कल मुझे इक खबर ने दुखी कर दिया!


मेरे  दोस्त का तलाक हो गया!


आम बात(खबर) है ये आज कल,


पर मेरे दुखी होने की वजह थी,


दोनों ’तलाक शुदा’ व्यक्ति मेरे दोस्त रहे थे!


एक (उनकी) शादी से पहले और एक शादी के बाद! 




हांलाकि मैं तलाक की वजह नहीं था!




पर अफ़सोस कि बात ये के


काश उन दोनों मे से ,


कोई एक तो ऐसा होता,




जो मोहब्बत की कद्र कभी तो समझता!


Thursday, November 12, 2009

तन्हाई का सच!



कल रात सवा ग्यारह बजे,
मैं अचानक तन्हा हो गया!

एक दम तन्हा!  


ऐसा नहीं के इस से पहले,
मुझे कभी मेरी तन्हाई का अहसास नहीं था!


पर कल रात मैने एक गलती की!


अपने Mobile की phone book को  browse  करने लगा!
दिल में आया कि देखूं कौन कौन वो लोग हैं,

जिन्हें गर अभी  call  करूं तो,
बिन अलसाये,बिन गरियाये (दिल में)
मेरी call लेगें (और खुश होगें!)

सच कह्ता हूं!
मैने इस से ज्यादा तन्हाई कभी मह्सूस नहीं की!

क्यों के एक भी Contact  ऐसा नहीं था जिसे,
मैं बेधडक call कर सकूं,


एक Thursday evening को!
(कल एक  working day है!)


सिर्फ़ ये कहने के लिये!


बहुत दिन हुये ’तुम से बात नहीं हुई’

और वो खुश हो के कहे,




"अच्छा लगा के तुमने याद किया!"
(झूंठ ही सही!!!!)


"सच में" कितना तन्हा हूं मैं!


और आप?  









Thursday, November 5, 2009

दर्द का सच!



छुपा लाख तू जो गुजरी है हम दोनो में,
तेरा चेहरा तेरे हर सच का पता देता है.


पाक पलकों को तेरी,मैंने तो छूआ भी नहीं,
कैसा दिलबर है,तू जगने की सज़ा देता है.


मेरी कोशिश है,मैं आज के साथ जी पाऊं,
मेरा माज़ी है के, मेरा दर्द जगा देता है.


ये मोहब्ब्त है, इसे खेल न समझो यारों
दर्द इश्क का बढने पे मज़ा देता है.


दर्द देता है मज़ा,कभी अश्क मज़ा देता है,
ये तो इन्सान है,जो अच्छों को भुला देता है.



Wednesday, October 14, 2009

बस कह दिया!

चमन को हम साजाये बैठे हैं,
जान की बाज़ी लगाये बैठे हैं.

तुम को मालूम ही नहीं शायद,
दुश्मन नज़रे गडाये बैठे हैं.

सलवटें बिस्तरों पे रहे कायम,
नींदे तो हम गवांये बैठें हैं

फ़ूल लाये हो तो गैर को दे दो,
हम तो दामन जलाये बैठे हैं.

मयकदे जाते तो गुनाह भी था,
बिन पिये सुधबुध गवांये बैठे हैं.

सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.


Saturday, October 10, 2009

मानव योनि!

चौरासी लाख योनिओं में,
शायद ’प्रेत’योनि भी एक है!
या शायद नहीं है?

पता नही!

पर मैं ये जानता हूं कि,
हर देह धारी मनुष्य
प्रेत योनी का सुख उठा सकता है,

अरे आप तो हैरान हो गये,
प्रेत योनि और सुख?
जी हां!

दर असल ये समझना ज़रूरी है कि,
मानव योनि के कौन कौन से कष्ट है,
जो प्रेत योनि में नहीं होते.

सम्वेदना,लगाव,
स्नेह,विरह,कामना,
ईर्ष्या,स्पर्धा,लालसा,
भय,आवेग,करुणा,
आकांछा,और हां

"सब कुछ सच सच जान लेने की ख्वाहिश"!

ये कुछ ऐसी अजीबो गरीब भावनायें हैं,
जो इन्सान के कष्ट का कारण होती है,

प्रेत योनि में ये दुख कहां,
तभी तो मानव देह धारी हो कर भी,
प्रेत योनि की प्रसंशा करते हुये,
उसी की प्राप्ति की ओर अग्रसर हूं!



Friday, July 24, 2009

अनामिका

अनुचरी,अर्धागिंनी,भार्या
कोई भी नाम मैने तो नहीं सुझाया,

न ही,स्वयं के लिये चुने मैने सम्बोधन
जैसे कि प्राणनाथ,स्वामी आदि,

फ़िर कब हम दोनो बन्ध गये
इन शब्दों की ज़न्जीरों से.

क्या इन के परे भी है कोई
ऐसा सीधा और सरल सा,
रिश्ता जो कोमल तो हो,
पर मज़बूत इतना,

जैसे पेड से लिपटी बेल,
जैसे तिल के भीतर तेल
जैसे पुल से गुज़रती रेल,
’आइस-पाइस’ का खेल,

चलो क्यो बांधें इसे,
उपमाओं में
मैं और तुम क्या काफ़ी नहीं,
इस जीवन को परिभाषित करने के लिये?


Saturday, July 11, 2009

जाने क्या?


तमाम शहर रौशन हो, ये नही होगा,
शमा जले अन्धेरे में ये मज़बूरी है.

दर्द मज़लूम का न गर परेशान करे,
ज़िन्दगी इंसान की अधूरी है.

ज़रूरी काम छोड के इबादत की?
समझ लो खुदा से अभी दूरी है.

सच कडवा लगे तो मैं क्या करूं,
इसको कहना बडा ज़रूरी है.

Monday, June 29, 2009

क्या ये सच है!

नया कुछ भी नहीं,ज़िन्दगी हस्बेमामूल चलती है.
लौ ख्यालों की है रौशन ,मोम उम्र की पिघलती है.

मै नहीं चाहता दुनियां से कुछ भी कहना,
जेहन में ,क्यों नदी अरमानों की मचलती है.

मैने चाहा ही नही ,तुझको कभी याद करूं,
बर्फ़ यादों की ये, क्यों नही पिघलती है.

सर्द यादों को तो तेरी,मै कब का दफ़न कर आया,
तपिश गमों की लहू बन के, मेरी रगो में फ़िसलती है.

मै तो गुज़र जाऊगां बरसात के मौसम की तरह,
काई मोहब्त की तो, दिल पे बाद में उभरती हैं.

Thursday, June 25, 2009

जादू का सच!

क्या कहा?, जादू दिखाओगे!
जाने दो फ़िर बेवकूफ़ बनाओगे.

वख्त आने पे बरसात होती है,
ये बात तुम प्यासों को बताओगे.

मेरे ज़ख्मों को बे मरहम ही रहने दो,
ये खुले , तो तुम बिखर जाओगे.

बम धमाके में,वो ही क्यों मरा,
उसकी मां को ,ये कैसे समझाओगे.

मैने माना पढा दोगे, सारे अनपढों को
काबिल जो भूल गये है,सब,उन्हें क्या बताओगे.


Saturday, May 16, 2009

तुम्हारा सच!


ये कब पता था दर्द के मायने भी आयेगे,
हम शेर कहें एसे ज़माने भी आयेगें।

कल रात इस ख्याल से मैं सो नहीं सका,
गर सो गया तो ख्याब सुहाने भी आयेगें।

दुश्मन जो आये कब्र पे,मिट्टी ने ये कहा,
छुप जाओ अब दोस्त पुराने भी आयेंगे।

जो दर्द गैर दे के गये, उनका भी शुक्रिया
अब दोस्त मेरे दिल को दुखाने भी आयेगें।

मैं सज़दा कर रहा था, और पत्थर बना था तू
इस दर पे कभी सर को झुकाने ना आयेगें।

गर तू खुदा था तो मुझे सीने से लगाता,
अब रूठ के तो देख हम मनाने न आयेगें।

इन्सान तो हम भी हैं संगे राह तो नहीं
ठोकर लगे तो लोग क्या उठाने ना आयेगें।


Sunday, April 26, 2009

एक बार फिर से पढें!

हाथ में इबारतें,लकीरें थीं, 
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरें थी।
  
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था, 
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थीं।
 
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे, 
उनके हाथों में मगर शमशीरें थीं। 
 
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थीं। 
 
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को, 
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थीं।