ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

Tuesday, August 28, 2012

मुगाल्ता!



वो मेरा नाम सुन के जल गया होगा,
किसी महफ़िल में मेरा ज़िक्र चल गया होगा!

उसकी बातों पे एतबार मत करना,
सच बात जान के बदल गया होगा!

तुमने नकाब उठाया ही क्यों,
दिल नादान था मचल गया होगा!

मौसम बारिशो का अभी बाकी है,
रुख हवाओं का बदल गया होगा!

रास्ते सारे गुम हो गये होगें,
वो फ़िर भी घर से निकल गया होगा!

Tuesday, July 31, 2012

इश्क-ए-बेपनाह!


मैं और करता भी क्या,
वफ़ा के सिवा!

मुझको मिलता भी क्या,
दगा के सिवा!

बस्तियाँ जल गई होंगी,
बचा क्या धुआँ के सिवा!

अब गुनाह कौन गिने,
मिले क्या बद्दुआ के सिवा!

कहाँ पनाह मिले,
बुज़ुर्ग की दुआ के सिवा!

दिल के लुटने का सबब,
और क्या निगाह के सिवा!

ज़ूंनून-ए-तलाश-ए-खुदा,
कुछ नही इश्क-ए-बेपनाह के सिवा!


Wednesday, July 4, 2012

मैं और मेरा खुदा!




घुमड रहा है,
गुबार बन के कहीं,
अगर तू सच है तो,
ज़ुबाँ पे आता क्यों नही?

"ईश्वरीय कण"

सच अगर है तो,
तो खुद को साबित कर,
झूंठ है तो,
बिखर जाता क्यों नहीं?

आईना है,तो,
मेरी शक्ल दिखा,
तसवीर है तो,
मुस्कुराता क्यों नहीं?




मेरा दिल है,
तो मेरी धडकन बन,
अश्क है,
तो बह जाता क्यों नहीं?

ख्याल है तो  कोई राग बन,
दर्द है तो फ़िर रुलाता,
क्यों नही?

बन्दा है तो,
कोई उम्मीद मत कर,
खुदा है तो,
नज़र आता क्यों नहीं?


बात तेरे और मेरे बीच की है,
चुप क्यों बैठा है?
बताता क्यों नहीं? 

Tuesday, June 26, 2012

आज का अर्थशास्त्र!


झूँठ बोलें,सच छुपायें,
आओ चलो पैसे कमायें!

दिल को तोडें,दर्द दें,
सच से हम नज़रें बचायें

आऒ चलो पैसे कमायें!

भूखे नंगो को चलो,
सपने दिखायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

मौत बाँटें,औरतों के
जिस्म टीवी पर दिखायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

लडकियों को कोख में मारे,
गरीबो को सतायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

किसने देखी है कयामत,
आये न आये,
मिल के धरती को चलो
जन्नत बनायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

देश उसकी अस्मिता,
सुरक्षा को फ़िर देख लेंगें
मौका सुनहरी है,
अभी इसको भुनायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

खुद निरक्षर,
मगर ज्ञान छाटें,
डिग्रियाँ बाँटें, बच्चों को भरमायें

आओ चलो पैसे कमायें


Tuesday, May 29, 2012

संवेदनहीन

अतृप्त आत्मा ,

भूखे जिस्म और उनकीं ज़रूरतें तमाम,

मन बेकाबू,

और उसकी गति बे-लगाम,

अधूरा सत्य,

धुन्धले मंज़र सुबुह शाम,


क्या पता? कब और कैसे आये मुकम्मल सुकूं,

और रूह को आराम!

Sunday, April 22, 2012

निर्मल सच


अपनी नज़रों से जब जब मैं गिरता गया,
मेरा रुतबा ज़माने में बढता गया! 

मेरे अखलाक की ज़बरूत घटती गई,
पैसा मेरी तिजोरी में बढता गया!


मेरे होंठों से मुस्कान जाती रही,
मेरा एहतिराम महफ़िल में बढता गया!

सब सितारे मुझे मूहँ चिढाते रहे,
मैं सिम्त-ए-तारीकी बढता गया!


Friday, April 13, 2012

रंग-ए-महफ़िल



चोट खा कर मुस्कुराना चाहता हूँ,
क्या करूँ रिश्ते निभाना चाह्ता हूँ!


ये रंगत-ए- महफ़िल तो कुछ ता देर होगी,
मैं थक गया हूँ घर को जाना चाहता हूँ!

तुम मेरी यादों में अब हर्गिज़ न आना,
मैं भी तुम को भूल जाना चाहता हूँ!

चल पडा हूँ राह-ए-शहर-ए-आबाद को अब,
आदमी हूँ मैं भी इक घर बसाना चाह्ता हूँ!


बस करो अब और न तोहमत लगाओ,
मैं भी एक माज़ी सुहाना चाहता हूँ!

PS:
न जाने क्युँ जब कि आप सब पढने वलों ने इतनी तव्व्जों से पढा और सराहा है, दिल में आता कि, आखिरी से पहले वाला शेर कुछ ऐसे कहा जाये-


"चल पडा हूँ राह-ए-शहर-ए-आबाद को मैं ,
आशिक तो हूँ पर इक घर बसाना चाह्ता हूँ!"

Thursday, March 22, 2012

चेहरे!


चेहरे!

अजीब,
गरीब,
और हाँ, अजीबो गरीब!
मुरझाये,
कुम्हलाये,
हर्षाये,
घबराये,
शर्माये,
हसींन,
कमीन,
बेहतरीन,
नये,
पुराने
जाने,
पहचाने,
और हाँ ’कुछ कुछ’ जाने पहचाने,
अन्जाने,
बेगाने,
दीवाने
काले-गोरे,
और कुछ न काले न गोरे,
कुछ कि आँखों में डोरे,


कोरे,
छिछोरे,
बेचारे,
थके से,
डरे से,
अपने से,
सपने से,
मेरे,
तेरे,
न मेरे न तेरे,
आँखें तरेरे,


कुछ शाम,
कुछ सवेरे,


घिनौने,
खिलौने,
कुछ तो जैसे
गैईया के छौने,


चेहरे ही चेहरे!


पर कभी कभी,
मिल नही पाता,
अपना ही चेहेरा!
अक्सर भाग के जाता हूँ मैं,


कभी आईने के आगे,
और कभी नज़दीक वाले चौराहे पर!


हर जगह बस अक्श है,परछाईं है,
सिर्फ़  भीड है और तन्हाई है !



Thursday, February 23, 2012

सजा इंसान होने की !




मेरे तमाम गुनाह हैं,अब इन्साफ़ करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.

दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.

हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे, 
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.      

मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.

गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.



Friday, January 27, 2012

Please! इसे कोई न पढे! चुनाव सर पर हैं!


थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,


बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,


वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,


और था एक पत्थर भी,


वो भी रास्ते का,


सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,


जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,

वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,

बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!


बीन सुन कर 
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।

भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!



सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं, 
नितांत यर्थाथ में।

Monday, January 23, 2012

उसका सच! एक बार फ़िर!


मुझे लग रहा है,पिछले कई दिनों से ,
या शायद, कई सालों से,

कोई है, जो मेरे बारे में सोचता रहता है,

हर दम,

अगर ऐसा न होता ,
तो कौन है जो, मेरे गिलास को शाम होते ही,
शराब से भर देता है।

भगवान?

मगर, वो ना तो पीता है,
और ना पीने वालों को पसंद करता है ,
ऐसा लोग कह्ते हैं,

पर कोई तो है वो !


कौन है वो, जो,
प्रथम आलिगंन से होने वाली अनुभुति 
से मुझे अवगत करा गया था।

मेरे पिता ने तो कभी इस बारे में मुझसे बात ही नहीं की,

पर कोई तो है, वो!

कौन है वो ,जो 
मेरी रोटी के निवाले में,
ऐसा रस भर देता है,
कि दुनियां की कोई भी नियामत,
मुझे वो स्वाद नहीं दे सकती।
पर मैं तो रोटी बनाना जानता ही नही

कोई तो है ,वो!

कौन है वो ,जो,
उन तमाम फ़ूलों के रगं और गंध को ,
बदल देता है,
कोमल ,अहसासों और भावनाओं में।

मेरे माली को तो साहित्य क्या, ठीक से हिन्दी भी नहीं आती।

कोई तो है ,वो,

वो जो भी है,
मैं जानता हूं, कि,
एक दिन मैं ,
जा कर मिलु्गां उससे,
और वो ,हैरान हो कर पूछेगा,


क्या हम, पहले भी ,कभी मिलें हैं?




Thursday, December 15, 2011

अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !


एक अरसा हुया ये चन्द शब्द लिखे हुये, आज ऐसे ही "सच में" की रचनाओं की पसंदगी नापसंदगी देखने की कोशिश कर रहा था, इस रचना को सब से ज्यादा बार पढा गया है, मेरे ब्लोग पर लेकिन हैरानी की बात है कि इस पर सिर्फ़ एक पढने वाले ने अपनी राय ज़ाहिर की है! मुझे लगा कि एक बार फ़िर से इसे पोस्ट करूं ,मेरे उन पाठकों के लिये जो पारखीं हैं और जिन की नज़र से यह रचना  चूक गई है!

आबे दरिया हूं मैं,कहीं ठहर नहीं पाउंगा,

मेरी फ़ितरत में है के, लौट नहीं आउंगा।

जो हैं गहराई में, मिलुगां  उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं कभी पहुंच नहीं पाउंगा।

दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बद्दुआ बनके  कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।

जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।

मेरी आज़ाद पसन्दी का, लो ये है सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।

मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।

बहता रहता हूं, ज़ज़्बातों की रवानी लेकर,
दर्द की धूप से ,बादल में बदल जाउंगा।

बन के आंसू कभी आंखों से, छलक जाता हूं,
शब्द बन कर ,कभी गीतों में निखर जाउंगा।

मुझको पाने के लिये ,दिल में कुछ जगह कर लो, 
मु्ठ्ठी में बांधोगे ,तो हाथों से फ़िसल जाउंगा।  


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आबे दरिया       : नदी का पानी
आज़ाद पसन्दी Independent Thinking(nature)
फ़लसफा          : Philosophy


Sunday, November 13, 2011

कैक्टस


मैने कह दिया था न,

कि कैक्टस कभी भी,

चुभ सकते हैं,

फ़ूल भी कई मौसम गुज़र जाने बाद शायद ही आते हैं,

कैक्टस पर,

हाँ ये ज़रूर है,
जो लोग,

कैक्टस उगाते हैं

घरों में

वो होते हैं ,

विरले,
डिफ़रैंट, हट के , अलग से,
औफ़ बीट

कैक्टस की तरह ही!


दुख पाकर भी क्या कोई,
खुश हो सकता है?

कैक्टस की तरह।


Wednesday, November 9, 2011

गंगा आरती!



हरि पुत्री बन कर तू उतरी
माँ गंगा कहलाई,
पाप नाशनी,जीवन दायनी
जै हो गंगा माई!

भागीरथी,अलकनंदा,हैं 
नाम तुम्हारे प्यारे,
हरिद्वार में तेरे तट पर
खुलते हरि के द्वारे!

निर्मल जल 
अमृत सा तेरा,
देह प्राण को पाले
तेरी जलधारा छूते ही
टूटें सर्वपाप के ताले!

माँ गंगा तू इतनी निर्मल
जैसे प्रभु का दर्शन,
पोषक जल तेरा नित सींचे 
भारत माँ का आंगन!

तू ही जीवन देती अनाज में 
खेतों को जल देकर,
तू ही आत्मा को उबारती
देह जला कर तट पर!

पर मानव अब 
नहीं जानता,खुद से ही क्यों हारा,
तेरे अमृत जैसे जल को भी
कर बैठा विषधारा!

माँ का बूढा हो जाना,
हर बालक को खलता है,
प्रिय नहीं है,सत्य मगर है,
जीवन यूंही चलता है!

हमने तेरे आँचल में
क्या क्या नहीं गिराया,
"गंगा,बहती हो क्यूं?"भी पूछा,
खुद का दोष न पाया!

डर जाता हूं सिर्फ़ सोच कर,
क्या वो दिन भी आयेगा,
गंगाजल मानव बस जब,
माँ की आँखो में ही पायेगा! 

Monday, October 24, 2011

दीवाली सच में!

माँ लक्ष्मी आपको कोटिश: नमन 

और नमन के बाद,
खुली चुनौती है!

यदि आप ’सच में’ 
उस सत्य स्वरूप,
ईश्वर के प्रतिरूप 
क्षीर सागर में शेषनाग पर शयन करते,
परम पूज्य, सदा स्मरणीय,
भक्‍त हृदय निवासी,
दीनानाथ,दीनबन्धु
के चरण कमलों की सदा सेवा का वरदान प्राप्त कर,
जगत जननी स्वरूपा हैं...

तो अबके बरस ,
झूंठ,पाखंड,कपट,छल,
और दम्भ से इतराती
महलों की अट्टालिकाओं से

प्रभु की अद्भुत रचना ’मानव’ 
के रचे खेल देखने की बजाय,

किसी भूखे मेहेनती,
या सच्चे जरूरती के झोपडें मे जाना ज़रूर,

क्यों कि उसकी आस्था, 
उसकी गरीबी की पीडा की सीमायें लाँघ कर भी,
उसे आपकी आराधना को विवश करतीं हैं ,



माँ, कम से इतना तो हो ही सकता है,
"हैप्पी दिपावली" के अवसर पर!





यदि इस बार भी ऐसा न हुआ तो,
कलयुग फ़िर अट्टहास करते हुये,
ईश्वरीय आस्था के ह्रास का उद्घघोष कर देगा,

और अंधेरा , राम के पुनरागमन के बावजूद,
इस धरा पर अपने साम्राज्य के स्थाई होने का 
ऐलान कर मुस्कुरायेगा!

माँ, लक्ष्मी छोटी बात है, आपके लिये,
और मैंने कौन सी BMW माँग ली अपने लिये,

या मेरी पत्नी कोई,
तनिष्क के चार कंगन मिलने के बाद भी,
सिर्फ़ एक और Diamond Ring की ख्वाहिश कर रही है...








Saturday, October 8, 2011

झुनझुने!



कोई ऐसा शहर बनाओ यारों,
हर तरफ़ आईने लगाओ यारों!


नींद में खो गये हैं ज़मीर सभी,
शोर करो इन को जगाओ यारो!



नयी नस्लें इन्ही रास्तों से गुजरेंगी,
राहे मन्ज़िल से ये काई हटाओ यारो!


बच्चे भूखे हैं, दूध मांगते है,
ख्वाब के झुनझुने मत बजाओ यारों!



Friday, September 16, 2011

मन इंसान का!





मन इंसान का,
अपना कभी पराया है,
मन ही है जिसने 
इंसान को हराया है,


मन में आ जाये तो,
राम बन जाये तू,
मन की मर्ज़ी ने ही तो,
रावण को बनाया है!




मन के बस में ही,है
इंसान और उसकी हस्ती 
मन की बस्ती में आबाद
यादों का सरमाया है,


मन है कभी चमकती 
धूप सा रोशन,
मन के बादल में ही तो 
नाउम्मीदी का साया है,


मन ही लेकर चला
अंजानी राहो पे,
मन ही है जिसने 
मुझे भटकाया है,  


मन ही वजह 
डर की बनता है कभी,
इसी मन ने ही 
मुझे हौसला दिलाया है,


कभी बच्चे की मानिंद
मैं हँसा खिलखिलाकर,
इसी मन ने मुझे कभी,
बेइंतेहा रुलाया है,


मन तो मन है,
इंसान का मन,
मन की मर्ज़ी,को,
भला कौन समझ पाया है? 





Wednesday, September 7, 2011

आज हम तो कल तुम्हारी बारी है!

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"आज हम तो कल तुम्हारी बारी है,
चँद रोज़ की मेहमाँ ये जवानी है!"
From left to right: Ms Nanda,Ms Vahida Rahmaan,Ms Helen & Ms Babita

Tuesday, August 16, 2011

वीराने का घर



लोग बस गये जाकर  वीराने में,
सूना घर हूँ मैं बस्ती में रह जाउँगा।

तुम न आओगे चलों यूँ ही सही,
याद में तो मैं तुम्हारी आऊँगा।

पी चुका हूँ ज़हर मैं तन्हाई का,
पर चारागर कहता है,के बच जाउँगा।

कह दिया तुमने जो तुम्हें अच्छा लगा,
सच बहुत कडवा है,मैं न कह पाउँगा।

तुमको लगता है कि मैं बरबाद हूँ,
आइना रोज़े महशर तुम्हें दिखलाऊँगा।

Saturday, August 13, 2011

Sunday, July 31, 2011

वजह आँसुओं की...!


तुम्हें याद होगा,
अपना, बचपन जब,
हम दोनों खिल उठते थे,
किसी फ़ूल की मानिन्द!
अकसर बे वजह,
पर कभी कही गर मिल जाता था.
कोई एक..

कभी तितली या मोर का पंख,
कभी अगरबत्ती का रैपर,
कभी नई डाक टिकट,
कभी इन्द्रधनुष देख कर,
और कभी कभी तो,
सिर्फ़
मेंढक की टर्र टर्र,
सुन कर ही हो जाता था!
ये कमाल 

अरे कमाल  ही तो है,
दो मानव मनो का पुल्कित हो जाना,

तुम्हें याद होंगी,
वो तपती दोपहरें,
जब वो शहतूत का पेड,
मगन होता था,
कोयल की बात में,और,
मैं और तुम चुरा लेते थे,
न जाने कितने पल,
उस गर्म लू की तपिश से,

उफ़्फ़!!!!

तुम्हारे चेहरे का वो 
सुर्ख लाल  हो जाना,
मुझे तो याद है,अब तक...!


और वो एक दिन,
जुलाई का,
शायद ’छब्बीस’ थी,
सावन के आने में
देर थी अभी, 
पर तुम्हारे दर्द 
के बादल,बरस गये थे,
क्यों रोईं थीं तुम,
जब कि मालूम था,


कुछ नहीं बदलने वाला,

आज जब,ज़िन्दगी की शाम हैं,
जनवरी की तेरह,
मैने जला लिये हैं,
यादों के अलाव,
इस उम्मीद में कि
तपिश यादों की ही सही,
दे सके शायद कुछ सुकूँ,

वही गीली लकडियाँ 
उसी शहतूत की,
धूआँ दे रही हैं,शायद,
और ये वजह है,मेरे आँसुओं की
और मैं फ़िर सोचता हूँ, 
एक दम तन्हा,
क्यों रोईं थीं तुम उस दिन...........!

छब्बीस थी शायद, वो जुलाई की!








Saturday, July 23, 2011

हक़ीक़तन! एक बार फ़िर!



मैं तुम्हारा ही हूँ,कभी आज़मा के देखो.
अश्क़ का क़तरा हूँ,आँखों में बसाकर देखो.

गर तलाशोगे,तुम्हें पहलू में ही मिल जाऊँगा,
मैं अभी खोया नही हूँ,मुझको बुला कर देखो.

तुमको भूलूँ और,कभी याद ना आऊँ तुमको,
ऐसी फ़ितरत नहीं, यादों में बसा कर देखो.

मैं नही माँगता दौलत के खजाने तुम से,
मचलता बच्चा हूँ, सीने से लगा कर देखो.

मेरे चहेरे पे पड़ी गर्द से मायूस ना हो,
मैं हँसी रूह हूँ ,ये धूल हटाकर देखो.


Sunday, July 10, 2011

अल्ल बल्ल गल्ल...........!!!!!

अब कहाँ से लाऊँ,
हर रोज़ नये लफ़्ज़,
जो आपको,भायें!

मेरी कवितायें,
आपको पसंद आयें!

हैं कहाँ, लफ़्ज,
जो बयाँ कर पायें,
दास्ताँने हमारी और आपकी,
हम सब,और उन सबकी,

दर असल सारी की सारी कहानी,
घूमती है,एक छोटे से दायरे के इर्द गिर्द,

चन्द लफ़्ज़ों और जज़्बातों के चारों ओर,
गोल गोल एक बवंडर के माफ़िक,

लफ़्ज़ भी जाने पहचाने हैं,
और जज़्बात भी,
फ़िर भी इंसान है तलाश में,
कुछ नये की!

शब्द अल्बत्त्‍ता सब पुराने हैं,
अपने ही मौहल्ले के बाशिन्दों के चेहरों की माफ़िक,


यकीं नहीं है,
तो जरा इन लफ़्ज़ों से ,
नज़र बचा कर दिखाओ!!!

मोहब्बत,
मज़बूरी,
हालात,
कमज़ोरी,
हिम्मत,
दौलत,
दस्तूर,
जज़्बात,
.....
......
.......
........

जवानी,
अमीरी,
गरीबी,
इसकी,उसकी
भूख प्यास ,सुख ,दुख....


और तमाम दुनिया भर की,
अल्ल बल्ल गल्ल.................!

Tuesday, July 5, 2011

"पेड या ताबूत"



आपको याद है न,
वो पेड!

नहीं! बरगद का नहीं!

अरे!


वो! जो आप सब के साथ,
जवाँ हुआ था,


अरे वो ही!

जो पौधे से वृक्ष बनने की कथा,
बडे दिलचस्प अँदाज़ मे बयाँ करता था!!

जिस के नीचे,
कई प्रेमी जोडे,
कभी न बिछ्डने की
कसम खा के,गये

और फ़िर कभी 
लौट के न आये,
’एक साथ’!

और जो गुहार लगाता था,
कि अगर कुछ नहीं हो सकता,
तो मुझे जाने दो,
पेपर मिल के आहते में,
और बन जाने दो,
हिस्सा उस कहानी का जो,
लिखी जाये मेरे सफ़ों पे,

अब पेड नहीं रहा,
टिम्बर बन गया,
वो पिछले हफ़्ते,

सुना हैं,
एक ताबूत बनाने वाली फ़र्म को मिला है
ठेका!
उस जीते जागते दरख्त को,
ताबूतों मे तब्दील कर देने का,
ताकि ताज़िन्दगी जो,
बात करता रहा "ज़िन्दगी" की,

उसे भी!

एहसास तो हो कि,
मौत भी कितनी हसीन और अटल सच्चाई है!  




Sunday, May 29, 2011

बता तो सही कौन है तू?



घुमड रहा है,
गुबार बन के कहीं,
अगर तू सच है तो,
ज़ुबाँ पे आता क्यों नही?

सच अगर है तो,
तो खुद को साबित कर,
झूंठ है तो,
बिखर जाता क्यों नहीं?

आईना है,तो,
मेरी शक्ल दिखा,
तसवीर है तो,
मुस्कुराता क्यों नहीं?

मेरा दिल है,
तो मेरी धडकन बन,
अश्क है,
तो बह जाता क्यों नहीं?

ख्याल है तो  कोई राग बन,
दर्द है तो फ़िर रुलाता,
क्यों नही?

बन्दा है तो,
कोई उम्मीद मत कर,
खुदा है तो,
नज़र आता क्यों नहीं?


बात तेरे और मेरे बीच की है,
चुप क्यों बैठा है?
बताता क्यों नहीं? 



Friday, May 20, 2011

गुलाब का फूल!(व्यापारी और’गुलाब प्रेमी’ क्षमा करें!)




आपने कभी सोचा है?

गुलाब का फूल कभी भी
जंगल मे नही खिलता,

क्यों भला?



वैसे गुलाब की एक किस्म होती तो है,
जिसे "जंगली" गुलाब कहते है!

पर वो भी कभी जंगल में नही होती,

गुलाब दरअसल बहुत ही,
संवेदनशील होता है!,

मैं वनस्पति विज्ञान का जानकार तो नहीं,
पर गुलाब की फ़ितरत जानता हूँ,

और यकीन मानिये, मैं आप सब से ज्यादा,
जंगलों मे घूमा हूँ!
(वन विभाग वाले माफ़ कर दें तों!)

दरअसल "गुलाब" को पता होता है, कि कौन, 

"कौन" है?


वो फ़र्क कर सकता है,
गुलकँद के व्यापारी ,
गुलाब जल के थोक विक्रेता 


और,

मासूम प्रेमी के बीच,

यदि ऐसा न होता तो,


"..................................
मुझे तोड लेना वन माली,
उस पथ पर देना तुम फ़ेंक,...
.......................................
.......................................
...."  
कभी न लिखी गई होती! 


मेरे एक कमरे वाले 
किराये के घर पर,
कभी आना,
"गुलाब" से मिलवाऊँगा! 





Monday, May 16, 2011

शायद मेरी तनहाई आपको रास न आये!



आप, मेरी तन्हाई पे तरस मत खाना,

मैं तन्हा हूँ नहीं,
मेरे तमाम साथी
दर्द,दुश्मनों की दुआयें,
दोस्तों की बेवाफ़ाई,गम-ओ-रंज़,
मुफ़लिसी,और "सनम की याद"!

बस अभी अभी,
ज़रा देर पहले ही...

बस यूँ ही ज़रा..
निकले हैं,
ताज़ा हवा में सासं लेने के लिये,


अब आप ही बताओं,
ज़रा सोच कर!
"ताज महल" लाख,
खूबसूरत और हवादार हो!
"मकबरा" आखिर "मकबरा" होता है!
और ज़िन्दा "शै" वहाँ कितनी देर बिता,सकते है?


और  वो भी लगातार बिना,
इस अहसास के साथ,
के ज़िन्दगी चलती रहती है
बिना ,उनके अहसास के साथ भी,
जो ज़िन्दा नहीं हैं!!!!

ज़िन्दा रहने के लिये,
ज़रूरी है,"ताज़" की खूबसूरती,
’दर्द’, ’रंज़’,’गम’तो आते जाते हैं!
ये सारे के सारे ज़िन्दा हैं,
और मेरे साथ हैं!
बस अभी अभी ज़रा!!!
यूँ ही ज़रा..............

मैं तन्हा नहीं हूँ!

Saturday, May 7, 2011

मै और मेरी तिश्‍नगी!




मेरी तिश्‍नगी ने मुझको ऐसा सिला दिया है,
बरसात की बूँदों ने ,मेरा घर जला दिया है।

मैने जब भी कभी चाहा, मेरी नींद संवर जाये,
ख्वाबों ने मेरे आके ,मुझको जगा दिया है।

मेरी किस खता के बदले,मुझे ऐसी खुशी मिली है,
मेरी आँख फ़िर से नम है,मेरा दिल भरा भरा है।

मै अकेला यूँ ही अक्सर, तन्हाइयों में खुश था,
तूने  मेरे पास आ के, मुझको फ़ना किया है।

जो खुशी मुझे मिली है, इसे मैं कहाँ सजाऊँ,
कहीं जल न जाये दामन, मेरा दिल डरा डरा है।



Thursday, April 28, 2011

समुन्दर के किनारे!



कल शाम मैं समुन्दर के साथ था,
बडी ही अजीब बात है,
न तो मैं वहाँ उसके बुलावे पे गया था,
और न ही मुझे उम्मीद थी कि,
मैं कभी मिल पाऊगाँ,
"समुन्दर"जैसी बडी शैह से!



पर हर लम्हा जो मैं गुजार आया,
’समुन्दर’ के साथ,
अपने आप में ’एक मुकम्मल ज़िन्दगी’है!

आप को गर यकीं न आये,
तो अभी बंद करिये अपनी आँखें,
और मुकम्मल तन्हाई में,
कोशिश कीजिये,
समुन्दर को 

सुनने की,
सूघंने की ,
अपनी ज़िल्द पर उसकी,
ठंडी मगर खारी हवा,
को महसूस करने की,

यकीं मानिये,
समुन्दर से गहरा और शांत कुछ भी नही!
और हम सब,


फ़िरते है यहाँ से वहाँ
लिये  अपना अपना,
एक एक समुन्दर 
प्यासे और अशांत!  


और बेखबर भी कि,
हम सब एक समुन्दर है!




Thursday, April 14, 2011

तकलीफ़-ए-रूह!(एक बात बहुत पुरानी!)


चारागर मशरूफ़ थे ,ईलाज़े मरीज़े रूह में,
बीमार पर जाता रहा ,तकलीफ़ उसको जिस्म की थी।

बाद मरने के भी , कब्र में है बेचॆनी,

वो खलिश अज़ीब किस्म की थी।

किस्सा गो कहता रहा ,रात भर सच्ची बातें,
नींद उनको आ गई ,तलाश जिन्हे तिलिस्म की थी।

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शब्दार्थ:

चारागर : हकीम (Local Doctor)
मशरूफ़ :वयस्त ( Engaged)
खलिश :दर्द की चुभन (Pain)
किस्सा गो :कहानी सुनाने वाला (Story Teller)
तिलिस्म :जादू (Magic)




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Sunday, March 27, 2011

"मुकम्मल सुकूँ"!


चुन चुन के करता हूँ, 
मैं तारीफ़ें अपने मकबरे की ,
मर गया हूँ?
क्या करूं !
ख्वाहिशें नहीं मरतीं!

गुज़रता हूँ,रोज़,
सिम्ते गुलशन से,
गुल नहीं,
बागवाँ नहीं,
तितलियाँ फ़िर भी,
यूँ ही आदतन,
तलाशे बहार में हैं!

न तू है,
न तेरी याद ही, बाकी कहीं,
फ़िर भी मैं हूँ,के,
तन्हा या फ़िर,
घिरा सा भीड में,
अपनी तन्हाई या तेरी यादों की!

मर के भी इंसान को,
मिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा,एक टुकडा, 
 मुकम्मल सुकूँ!

गर सुने 'पुर सुकूँ' हो कर कोई,
तो सुनाऊँ दास्ताँ अपनी कभी,
पर कहाँ मिलता अब,
एक लम्हा,एक घडी,
"मुकम्मल सुकूँ"! 

Wednesday, March 16, 2011

मौसम-ए-बहार और अश्क!


                                                      


















आम के बौर की खुशबू,उसे समझाऊँ कैसे,
शहर में रहता है उसे बाग तक लाऊँ कैसे।

अक्सर वो यूँही मेरी बात से डर जाता है,
बडा मासूम है,अहदे जहाँ सिखाऊँ कैसे।

मेरी फ़ितरत ही अज़ब है हवा का झोका हूँ,
वो हसीं ख्याब है मैं उसको  जगाऊँ कैसे।

  दस्तूर,समझदारी, इल्म, किताबें और उसूल,
 दिल मगर नाँदा है,दिल को समझाऊँ कैसे।

 आँखें उसकी मोहब्बत से भरी रहती हैं,
 खारा अश्क हूँ, उस आँख में आऊँ कैसे।


Saturday, March 12, 2011

अश्रु अंजलि!(जापान को)





जब भी कोशिश करता हूँ,
गर्व करने की,
कि मैं इंसान हूँ!

एक थपेडा,
एक तमाचा कुदरत का,
हल्के से ही सही,
कह के जाता है,
कि "मैं" बलवान हूँ!

हर समय ये याद रखना,
"मैं",
वख्त हूँ कभी,
कुदरत कभी,
इंसानी फ़ितरत कभी,
और कभी आखिर में
"मै" ही भगवान हूँ!

सब तेरे मंसूबे,
तकनीकें
सलाहियत तेरी,
बस टिकी है,
एक घुरी पे, 
घूमती है जिसके सहारे
तेरी दुनिया,
और ज़मीं,

इस ज़मीं के पार 
जब कुछ भी नही,
शून्य और अस्तित्व के परे,
मैं ही आसमान हूँ।