Sunday, April 26, 2009

एक बार फिर से पढें!

हाथ में इबारतें,लकीरें थीं, 
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरें थी।
  
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था, 
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थीं।
 
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे, 
उनके हाथों में मगर शमशीरें थीं। 
 
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थीं। 
 
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को, 
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थीं। 


Saturday, April 18, 2009

वख्त का सच!

आईना घिस जायेगा, 
अब और ना  बुहारो यारों,
गर्द  तो चेहरे पे पडी है, 
ज़रा एक हाथ फ़िरा लो यारो।

न करो ज़िक्र गुजरे 
हुये ज़माने का ,
मुश्किल हालात हैं,
अब खुद को सम्भालों यारो।

मैं तो गुज़र जाउंगा,
नाकामियाँ अपनी लेकर,
तुमको तो रहना है अभी,
ज़रा खुद को संवारों यारो।

 

Sunday, April 12, 2009

मन का सच!



खता मेरी नहीं के सच मै ने जाना,
कुफ़्र मेरा तो ये बेबाक ज़ुबानी है।

मैं, तू, हों या सिकन्दरे आलम,
जहाँ में हर शह आनी जानी है।

ना रख मरहम,मेरे ज़ख्मों पे यूं बेदर्दी से,
तमाम इन में मेरे शौक की निशानी है।





Wednesday, April 1, 2009

उसका सच!

मुझे लग रहा है,पिछले कई दिनों से ,
या शायद, कई सालों से,

कोई है, जो मेरे बारे में सोचता रहता है,

हर दम,

अगर ऐसा न होता ,
तो कौन है जो, मेरे गिलास को शाम होते ही,
शराब से भर देता है।

भगवान?

मगर, वो ना तो पीता है,
और ना पीने वालों को पसंद करता है ,
ऐसा लोग कह्ते हैं,

पर कोई तो है वो !


कौन है वो, जो,
प्रथम आलिगंन से होने वाली अनुभुति 
से मुझे अवगत करा गया था।

मेरे पिता ने तो कभी इस बारे में मुझसे बात ही नहीं की,

पर कोई तो है, वो!

कौन है वो ,जो 
मेरी रोटी के निवाले में,
ऐसा रस भर देता है,
कि दुनियां की कोई भी नियामत,
मुझे वो स्वाद नहीं दे सकती।
पर मैं तो रोटी बनाना जानता ही नही

कोई तो है ,वो!

कौन है वो ,जो,
उन तमाम फ़ूलों के रगं और गंध को ,
बदल देता है,
कोमल ,अहसासों और भावनाओं में।

मेरे माली को तो साहित्य क्या, ठीक से हिन्दी भी नहीं आती।

कोई तो है ,वो,

वो जो भी है,
मैं जानता हूं, कि,
एक दिन मैं ,
जा कर मिलु्गां उससे,
और वो ,हैरान हो कर पूछेगा,


क्या हम, पहले भी ,कभी मिलें हैं?