Friday, June 19, 2009


वो देखो दौड़ के मंज़िल पे जा पहुँचा,
कौन कहता है के,'झूंठ के पावं' नही होते.

मैं चीख चीख के सब को बताता रह गया,
फिर ना कहना,'दीवारों के भी कान' होते हैं.

सारे हाक़िम लपक कर उसके पावं छू आए,
तब मैं जान गया,'क़ानून के हाथ' लंबे हैं.

4 comments:

  1. खूबसूरत सोच है
    कोई नई गजल पढ़वाइये

    वीनस केसरी

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  2. wah kya baat kahi hai....darpan ki tarah aar-paar

    maja aa gaya ...kam shabdo mai aapne jis baat ko kaha hai yakinan kabil-e-daad

    kubool karen

    shobhagy hai mera aap jaise funkaar ne bhavo ko saraha

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  3. वो देखो दौड़ के मंज़िल पे जा पहुँचा,
    कौन कहता है के,'झूंठ के पावं' नही होते...so baar bolne se har jhuth sach ho jata hai.....

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  4. राज जी,
    मेरा मानना ज़रा मुक्तलिफ़ है, आपके point of view से,वो ये के:

    "सच घटे या बढे तो सच न रहे,
    और झूंठ की तो कोई इन्तेहा ही नही.

    चाहे सोने के फ़्रेम में जड दो,
    आईना झूंठ बोलता ही नहीं."

    कलाम मेरा नहीं है.

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