Monday, September 21, 2009

दरख्त का सच!

मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.

जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.

नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.

मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.

पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!

मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.

अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.

नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.

आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?

कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.

कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.

शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.

और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?

9 comments:

  1. सफ़र की अच्छी दास्तान...बहुत बधाई

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  2. शानदार रचना है।
    नवरात्रों की शुभकामनाएँ!
    ईद मुबारक!!

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  3. और वैसे भी, देखो न,
    आज कल ’LG,Samsung और Voltas
    के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?

    अजी जनाब,
    इसे कहते हैं वापसी.. क्या लिखते हैं आप
    शानदार..
    कल्पना की उड़ान क्या न करवाए...एक वृक्ष से इतना कुछ कहलवा दिया ..!!
    बहुत ही बढ़िया.
    शब्द संयोजन उम्दा, कल्पनाशीलता शानदार और कविता का उद्देश्य बेमिसाल..
    बधाई.. !!!
    सच में !!

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  4. आप सब का शुक्रिया तहे दिल से!

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  5. podhe se darkhat ka safar, jeevan ke sach ka safar/
    jindagi ka uddeshya? podhe se darkht banane ke baad bhi yah ek savaal he/ kintu mujhe lagtaa he jeevan ke uddeshya ko bhi aapne apani rachna me nihit kar liya he..jis safar me itana kuchh ho..use fir uddeshya ko talashne ki kya jaroorat/

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  6. rachana ke saath ada ji ki baate dilchshp rahi .

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  7. कमाल लिखा है आपने,"सच में" पर आकर सुन्दर विचार व्यक्त करने के लिये, धन्यवाद! "सच में’ के प्रति प्रेम बनाये रखें!

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  8. 6 Comments On "Kavita"

    रश्मि प्रभा... said...

    इस रचना के लिए शब्द नहीं ....... बहुत ही बढ़िया , मैं निःशब्द हूँ

    November 21, 2009 6:16 AM


    वन्दना said...

    zindagi ke yatharth ko bodh karati rachna har pal ka ahsaas kara gayi..........zindagi ko is nazariye se dekhne ka andaaz bahut bhaya.

    November 21, 2009 5:37 AM


    मनोज कुमार said...

    लाजवाब। शोषण के कई प्रतिरूप इस कविता के कथ्य के अंग बने हैं।
    शहर क्या देखें कि हर मंजर में छाले पड़ गये,
    ऐसी गरमी थी कि पीले फूल काले पड़ गये।

    November 21, 2009 5:56 AM


    योगेश स्वप्न said...

    umda.

    November 21, 2009 3:46 AM


    shama said...

    Darakh hame kya nahee dete/dikhate...ham apnee apadhapime na jane kitna andekha kar guzarte hain...Rashmi ji se sahmat hun...alfaaz nahee is rachnaake liye!

    November 21, 2009 10:43 AM


    दिगम्बर नासवा said...

    पौधे से दरख़्त तक का सलार बेमिसाल है .......... बहुत अछा लिखा है ........

    November 23, 2009 4:57 PM

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  9. बहुत अच्छी सार्थक्, सटीक कविता। लिंक भेजने के लिये धन्यवाद!
    इसके साथ ही आप हमारे अभियान से जुड़े इसके लिये भी धन्यवाद!


    वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर

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