Tuesday, July 27, 2010

पेच-ओ-खम

रात काली थी मगर काटी है मैने,
लालिमा पूरब में नज़र आने लगी है।


डर रहा हूं मौसमों की फ़ितरतों से,
फ़िलहाल तो पुरव्वईया सुहानी लगी है।


छंट गयी लगता है उसकी बदगुमानी,
पल्लू को उंगली पर वो घुमाने लगी है।


मज़ा इस सफ़र का कहीं गुम न जाये,
मन्ज़िल सामने अब नज़र आने लगी है।


सीखता हूं,रेख्ते के पेच-ओ-खम मैं! 
बात मेरी लोगो को अब भाने लगी है।


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रेख्ता:Urdu language used for literature.
पेच-ओ-खम:Complications. 

12 comments:

  1. डर रहा हूं मौसमों की फ़ितरतों से,
    फ़िलहाल तो पुरव्वईया सुहानी लगी है।
    अहसास से लबरेज ...

    छंट गयी लगता है उसकी बदगुमानी,
    पल्लू को उंगली पर वो घुमाने लगी है।
    बहुत खूबसूरत शेर है ये...गज़ब..

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  2. बहुत खूब अल्फ़ाज़ लिखे हैं सर,
    ’मज़ा एक सफ़र का कहीं गुम न जाये, मन्ज़िल सामने अब नज़र आने लगी है’
    वाकई मन्ज़िल पाने से कहीं बेहतर है मुसलसल सफ़र में रहना।
    बहुत शानदार, सच में।

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  3. आप लोगों का आभारी हूं,जो आपने अच्छे शब्द कहे मेरी साधारण सी बात पर!शुक्रिया!

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  4. रात काली थी मगर काटी है मैने,
    लालिमा पूरब में नज़र आने लगी है।

    सच में रात काटने के बाद पूरब की लालिमा का इंतजार रहता है। बाते खूबसूरती से कहीं हैं आपने।

    आपकी बात भले ही सधारण हो पर सधारण शब्दों में ही असधारण होने का गुण छुपा होता है।

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  5. रात काली थी मगर काटी है मैने
    लालिमा पूरब में नज़र आने लगी है.....

    Raat kalee
    katane ke baad
    nazar aayee lalema

    शानदार है सच में !!!

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  6. बहुत सुन्दर लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
    मित्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ!

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  7. रात काली थी मगर काटी है मैने,
    लालिमा पूरब में नज़र आने लगी है।

    बहुत सुन्दर!

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