Sunday, July 18, 2010

इंतेहा-ए-दर्द!



दर्द को मैं ,अब दवा देने चला हूं,
खुद को ही मैं बद्दुआ देने चला हूं!

बेवफ़ा को फ़ूल चुभने से लगे थे,
ताज कांटो का उसे देने चला हूं!

मर गया हूं ये यकीं तुमको नहीं है, 
खुदकी मय्यत को कांधा देने चला हूं!

9 comments:

  1. सुन्दर गज़ल पढ़वाई.

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  2. ’सच में’ ’इंतेहा-ए-दर्द’

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  3. समीर जी,
    आप आये मेरे शब्द पढे,और आपकी तारीफ़ से वो गज़ल बन गये!लिखना सकारथ हुया !शुक्रिया!
    "सच में" के प्रति प्रेम बनाये रखें!

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  4. अच्छी रचना.....
    दिल से लिखा एक-एक शब्द....
    वाह!

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  5. दर्द को मैं ,अब दवा देने चला हूं,
    खुद को ही मैं बद्दुआ देने चला हूं!

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई !

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  6. waah..har pankti gajab ki ban padi hai :)

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  7. ग़ज़ब के शेर हैं सब .... क्या कतल लिखते हैं आप ........

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  8. Gazab dha rahe hain aapke alfaaz!

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बेहिचक अपने विचारों को शब्द दें! आप की आलोचना ही मेरी रचना को निखार देगी!आपका comment न करना एक मायूसी सी देता है,लगता है रचना मै कुछ भी पढने योग्य नहीं है.So please do comment,it just takes few moments but my effort is blessed.