Thursday, December 9, 2010
श्श्श्श्श्श्श्श्श! किसी से न कहना!
मैने सोच लिया है,
अब सच के बारे में कोई बात नहीं करुंगा,
खास तौर से मैं,
अपने आपसे!
वैसे भी!
सोये हुये भिखारी के घाव पर,
भिनभिनाती मक्खियों की तरह,
कहाँ सुकून से रहने देती है,
रोज़ टीवी से सीधे मेरे ज़ेहेन में ठूंसी जाने वाली खबरें!
कैसे कोई सोच सकता है? और वो भी,
सच के बारे मैं!
चौल की पतली दीवार से,
छन छन कर आने वाली,
बूढे मियाँ बीवी की रोज़ की झिकझिक की तरह,
हिंसा की सूचनायें,जो मेरा समाज
बिना मेरी इज़ाजत के प्रसारित करता रहता है,
मुझे ख्याब तो क्या?
एक पुरसुकून नींद भी नहीं लेने देतीं!
क्या होगा?
बचपन के सपनो का!
तथा कथित महानायको की भीड,
और सुरसा की तरह मूँह बाये
हमारी आकाक्षाओं की अट्टालिकायें,
उस पर यथार्थ की दलदली धरातल,
एक साथ जैसे एक साजिश के तहत,
लेकर जा रही है बौने इंसान को
और भी नीचे!
शायद पाताल के भी पार!
अब सच के बारे में,
मैं कोई बात नहीं करुंगा!
किसी से भी!
खुद अपने आप से भी नहीं!
16 comments:
Please feel free to express your true feelings about the 'Post' you just read. "Anonymous" Pl Excuse Me!
बेहिचक अपने विचारों को शब्द दें! आप की आलोचना ही मेरी रचना को निखार देगी!आपका comment न करना एक मायूसी सी देता है,लगता है रचना मै कुछ भी पढने योग्य नहीं है.So please do comment,it just takes few moments but my effort is blessed.
इस लाजवाब राचना के लिए आपकी जितनी प्रशंशा की जाए कम है...शब्दों का बेहतरीन इस्तेमाल किया है आपने...रचना मौलिक और अनूठी है...
ReplyDeleteनीरज
बेहतरीन .. बहुत सुन्दर रचना
ReplyDelete"awesome.."
ReplyDeleteसौ आने सही बात । आज टी वी मेँ न्यूज नहीँ बल्कि बाजार और विज्ञापन बटोरने के मसाले है। सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआपकी यह रचना कल के ( 11-12-2010 ) चर्चा मंच पर है .. कृपया अपनी अमूल्य राय से अवगत कराएँ ...
ReplyDeletehttp://charchamanch.uchcharan.com
.
bahut badhiya kaha aapne
ReplyDeleteरचना बहुत सुन्दर है ! पर सच कहना नहीं छोडना है ... कभी नहीं !
ReplyDeletebahut sahi kaha hai aapne..!
ReplyDeleteतथा कथित महानायको की भीड,
ReplyDeleteऔर सुरसा की तरह मूँह बाये
हमारी आकाक्षाओं की अट्टालिकायें,
उस पर यथार्थ की दलदली धरातल,
एक साथ जैसे एक साजिश के तहत,
लेकर जा रही है बौने इंसान को
और भी नीचे!
शायद पाताल के भी पार!
अनूठी और लाजवाब रचना झकझोरती है आखिर सच कैसे कह दे कोई अपने आप से भी………………बेहद प्रशंसनीय और उम्दा रचना दिल मे उतर गयी जितनी प्रशंसा की जाये कम है।
yatharthparak rachna!!!
ReplyDeletesashakt abhivyakti!
बहुत सुखी रहेंगे आप, लेकिन कर सकेंगे? ना, नहीं कर सकेंगे.......
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा.....मेरा ब्लागः-"काव्य-कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ ....आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद
ReplyDeleteकैसे कोई सोच सकता है?
ReplyDeleteऔर वो भी,
सच के बारे मैं!
बहुत खूब ... सच है की कडुवे सच के बारे में सोचना नहीं चाता कोई ... पर बहुत से इसे भुगतते हैं ... .
आप सब का आभार!
ReplyDeleteशूली पे चढ़ा दो या सर कलम कर दो
ReplyDeleteसच कड़वा ही सही मैं तो सच ही बोलूँगा !
aapki is rachna par mujhe khud ki ye panktiyan yaad aa gayii ...
अब सच के बारे में,
मैं कोई बात नहीं करुंगा!
किसी से भी!
खुद अपने आप से भी नहीं!
वाह ... बहुत सुन्दर कविता मन को भावुक कर दिया आभार / शुभ कामनाएं
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