Saturday, March 30, 2013

नींद की गठरी!

दोस्ती का देखने को,अब कौन सा मंज़र मिले,
फिर कलेजा चाक हो,या पीठ में खंजर मिले!


मेरी बरबादी की खातिर,दुश्मनी कम पड गई,
दिल में यारों को बसाया,उसके बस खंडहर मिले!


मैंने समझा था गुलों की सेज,तुरबत को मगर,
कब्र में जा कर भी बस,बदनामी के नश्तर मिले।


लोग लेकर चल पडे थे,सामाँ मसर्रत के सभी,
नींद की गठरी नहीं थी,खाली उन्हे बिस्तर मिले।

4 comments:

  1. मेरी बरबादी की खातिर,दुश्मनी कम पड गई,
    दिल में यारों को बसाया,उसके बस खंडहर मिले!...

    वाह लाजवाब शेर हैं सभी ... कमाल की गज़ल ...

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  2. वाह सभी शेर लाजवाब हैं....

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  3. डॉ. नागेश पांडेय संजय एवं Maheshwari kaneri जी! आप दोनों का तह-ए-दिल से शुक्रिया!

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बेहिचक अपने विचारों को शब्द दें! आप की आलोचना ही मेरी रचना को निखार देगी!आपका comment न करना एक मायूसी सी देता है,लगता है रचना मै कुछ भी पढने योग्य नहीं है.So please do comment,it just takes few moments but my effort is blessed.