Sunday, June 30, 2013

तलाश एक अच्छे इन्सान की।


यूँ  ही,
कल रात,
बेसाख्त: लगा ढूँडने
एक अच्छा इन्सान,

रात काफ़ी हो गई थी,
और थी थोडी थकान,

फ़िर भी
मन के फ़ितूर को
शान्त करना भी था 
"ज़रूरी"

अब मेरी आदत कह लीजिये,
या यूँ ही!
दफ़्तन ’दस्तूरी’

मैंने कहा क्यूँ कहीं और जायें?
क्यों न अपने पहलू में ही गौर फ़र्मायें!

जा मिला मैं आईने से!
और पूछा ,
है भला कोई यहाँ!

मुझसे ’भला’?

एक आवाज़ कहीं दूर से,
आई या वहम के बाइस सुनाई दी!

"बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलया कोय
जब घट देखा आपना,
मुझ से बुरा न कोय"

कबीर साहब,
इतना ’सच’ किस काम का!
के जीना ही दुश्‍वार हो जाये!  

केदारनाथ की जय हो!


"मैं तो नूर बन के तेरे दीदों में रहता था,
तोड दीं जो तूने उन उम्मीदों में रहता था!"

"जब तक पूजते रहे तो पत्थर में भी खुदा थे,
जब से बिके बाज़ार में,शिव पत्थर के हो गये!

"जब ज़र्रे ज़र्रे में मैं हूँ तो पत्थर में क्यों नहीं,
अज़ाब* भी तो मेरा रंग है,मेरे घर में क्यूँ नहीं?

और एक नज़र हकीम ’नासिर’ साहिब के दो शेर जो केदारनाथ धटनाक्रम पर सटीक बात कहते नज़र आते हैं

I hope Kedarnath (भगवान केदारनाथ) is listening too,
"पत्थरों आज मेरे सर पे बरसते क्यूँ हो,
मैंने तुम को भी कभी अपना खुदा रक्खा है।"

And for the victims at Kedarnath
"पी जा अय्याम की तल्खी को भी हँस के ’नासिर’
ग़म को सहने में भी कुदरत ने मज़ा रक्खा है!"
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* अज़ाब = पीड़ा, सन्ताप, दंड