Sunday, March 15, 2009

ये भी सच है!

'कु्छ मुक्तक' लिखते समय एक शेर, मैने आप सब को सुनाया था, और ये भी वादा किया था,कि पूरी गज़ल बाद में कभी  सुनाउंगा। वो शेर कुछ ऎसे था,

"ये वो दौलत है जो बांटे से भी से भी बढ जाती है,
 ज़रा हँस दे भीगी पलकों को छुपाने वाले।" 

लीजिये अब उस कडी बाकी के शेर भी आप सब की नज़र हैं।

उन्नीदें चश्म तमाम रात, ख्वाबों की बाट जोहेंगे,
ज़रा तू घर तो पहुचं मेरी नींद उडाने वाले।

ये वो दौलत है जो बांटे से भी बढ जाती है,
ज़रा हँस  दे भीगी पलकों को छुपाने वाले।

वो बे लिबास लाश, कुछ उसूलों की थी,
जिसे सरे राह घसीटे थे कानून बनाने वाले।

ये फ़कीरी भी लाख नियामत है,संभल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगे ज़माने वाले।





4 comments:

  1. वो बे लिबास लाश, कुछ उसूलों की थी,
    जिसे सरे राह घसीटे थे कानून बनाने वाले।
    baat mein bahut dam hai. keep it up.

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  2. खुद से बेरुखी कैसी अपना फोटो
    डालिए.

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  3. bahut badhiya... jindagi to aise hi bit jaati hai...log dekhte rahate hai....

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  4. सागर पर लिखा है रस्ता, पगडंडी ना देख ।
    सागर ले ले हाथ मे, फिर पगडंडी तू देख़ ॥

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बेहिचक अपने विचारों को शब्द दें! आप की आलोचना ही मेरी रचना को निखार देगी!आपका comment न करना एक मायूसी सी देता है,लगता है रचना मै कुछ भी पढने योग्य नहीं है.So please do comment,it just takes few moments but my effort is blessed.