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Wednesday, May 20, 2009

वजह जीने की!


बहुत  पहले दो मुक्तक लिखे थे,अब उनके जोडीदार शेर अवतरित हो गये है,

अन्धेरा इस कदर काला नहीं था,
उफ़्क पे झूठं का  सूरज कहीं उग आया होगा।

चश्म मेरे तो कब के नमीं गवां बैठे,
लहू ज़िगर का अश्क बन के उभर आया होगा।

तब्ब्सुम मेरे होठों पे? क्या हैरत की बात है?
खुशी नही कोई दर्द दिल में उतर आया होगा।

मै ना जाता दरे दुशमन पे कसीदा पढने,
दोस्त बनके उसने मुझे धोखे से बुलाया होगा।

खुद्कुशी करने वालों को भी आओ माफ़ हम करदें,
जीते रहने का कोई रस्ता न नज़र आया होगा।


6 comments:

  1. मैने तो आपका इतना सुन्दर ब्लॉग अभी तक देखा ही नहीं था । खूबसूरत रचना । धन्यवाद ।

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  2. hansi nahi koee dard dil me utar aya hoga....boht dard hai esme...

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  3. आपका शुक्रिया, दर्द को महसूस करने के लिये और अभिव्यक्ति के लिये।

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  4. hamaare aapke khayaal milte hain. dosti kijiyega?

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  5. दरअसल दिक्कत ये है कि मेरे विचार कबीर से मिलते हैं, जो कहता है,:

    कबिरा खडा बज़ार में, मांगे सब की खैर,
    ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।

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  6. Maine pehlebhi kaha tha, ki, aapkee rachnayonpe mai tippanee karun, aisi meree qabiliyat nahee..yahi sach hai..!

    Aur meree kavitape aapne bohot hee achhee tippanee kee...sach hai..ham kisee rishteko thame rehte,hain, jobhi bacha hai, khatm na ho, khudko behlate rehte hain...!

    Thanks a lot for the guidelines..I will soon follow those..very keen..just that ,for coming 3/4 days am extremely occupied with various,mundane,yet mandatory rigmaroles!!

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