Wednesday, October 28, 2009

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,


गर नही!तो,


’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’

6 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता है

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  2. तेरा काजल जो
    मेरी कमीज़ के कन्धे पर
    लगा रह गया था,
    अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

    बहुत सुन्दर!

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  3. बहुत ही ख़ूबसूरत और शानदार कविता लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है! देरी के लिए माफ़ी चाहती हूँ! अब से आपके ब्लॉग पर आती रहूंगी!

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  4. तेरा काजल जो
    मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
    अब मुझे कलंक सा लगने लगा है. Blogger me naya hu adhik rachnaye nahi dekhi par ye panktiyan prabhavshalee hai Badhai.

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  5. तेरा काजल जो
    मेरी कमीज़ के कन्धे पर
    लगा रह गया था,
    अब मुझे कलंक सा लगने लगा है....

    khushi ke vo lamhe jeevan ban jaate hain ... us kaajal ko kaale baadal samajh kar jee lo .. bahoot khoob ...

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  6. 5 Comments these comment have been copied form comment box on "कविता"

    shama said...

    Ishwar naa kare..kisee ko kajal kalank lage..!
    Leoji..rachna padhte,padhte raungate khade ho gaye!

    November 19, 2009 1:12 AM


    रश्मि प्रभा... said...

    न्याय गर संगत नहीं तो सच में कैसा मुकदमा और किसका गुनाह?

    November 19, 2009 1:43 AM


    वन्दना said...

    behtreen abhivyakti.

    November 19, 2009 3:18 AM


    मनोज कुमार said...

    अच्छी रचना। बधाई।

    November 19, 2009 10:07 AM


    वाणी गीत said...

    उचित प्रश्न है ...!!

    November 19, 2009 6:52 PM

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