Monday, March 22, 2010

तलाश खुद अपनी!



इन्तेहा-ए-उम्मीदे-वफ़ा क्या खूब!
जागी आंखों ने सपने सजा लिये।


मौत की बेरुखी, सज़र-ए-इन्सानियत में,
अधमरे लोग हैं,गिद्दों ने पर फ़ैला लिये।


चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।


भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये!

3 comments:

  1. चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
    दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।

    are kya lajwaab sher hain..bahut khoob..
    vaise saare hi gazab ke hain par iski baat hi juda...

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  2. "Kavita" par mili appreciation.

    रश्मि प्रभा... said...
    bahut hi badhiyaa likha hai

    March 23, 2010 12:55 AM


    दिगम्बर नासवा said...
    भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
    ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये ..

    बहुत खूब .. क्‍माल की बात कह दी इन शेरो में .....

    March 23, 2010 2:49 AM


    sangeeta swarup said...
    खूबसूरत ख़याल...अच्छी ग़ज़ल

    March 23, 2010 5:38 AM


    योगेश स्वप्न said...
    wah. bahut khoob.

    March 23, 2010 6:21 AM


    shama said...
    चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
    दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
    Kya baat hai Leoji! Waise harek sher apneaap me mukammal hai!

    March 23, 2010 9:04 AM


    शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...
    चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
    दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
    वाह...शानदार
    इसी सिलसिले में मेरा एक शेर देखें-
    ख़जर था किसके हाथ में ये तो ख़बर नहीं,
    हां! दोस्त की तरफ़ से मैं गाफ़िल ज़रूर था.

    March 24, 2010 10:47 AM

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  3. चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
    दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।

    गज़ब का शेर है....वैसे पूरी ग़ज़ल ही अच्छी है ... पर ये शेर बहुत अच्छा लगा

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