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Wednesday, April 7, 2010

वफ़ा की नुमाइश!



कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|

जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों  न जज़बातो, का सौदा करे कोई!

खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई| 


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आप से गुजारिश है कि एक नज़र मेरे एक बहुत पुराने ख्याल पर भी डालें जो ऊपर लिखी रचना के संदर्भ में  और भी Relevant हो जाता  है! 

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसर्रत 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,

गर नही!तो,

’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’

7 comments:

  1. क्या प्यार-मोहब्बत पर सिर्फ आयशा और शोएब का ही एकाधिकार है

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  2. wow !!!!!!!!


    taza muda he ye


    good

    bahut khub


    shekhar kumawat

    http://kavyawani.blogspot.com/

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  3. इंसान सीधा नहीं हो सकता जी।
    हमेशा की तरह बहुत खूब।
    आभार।

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  4. गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
    कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’


    :):) (मुस्काने का भाव)
    :"| (सोचने का भाव)

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  5. ’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
    कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’
    Aapne phir ekbaar kamal kar diya!
    Hamesha stabdh kar dete hain!

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  6. "Kavita" se:

    sangeeta swarup said...
    बहुत खूब....सही कहा है.

    April 9, 2010 11:37 PM


    knkayastha said...
    अच्छी रचना है परन्तु विराम चिन्ह का उपयोग ध्यान से करना होगा...

    April 9, 2010 11:57 PM


    दिगम्बर नासवा said...
    खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
    कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई|

    खुद परस्ती ...
    सच में इंसान अपने अलावा कुछ और नही सोच सहता ... बहुत ग़ज़ब के शेर ...

    April 10, 2010 12:45 AM


    श्याम कोरी 'उदय' said...
    ... बहुत सुन्दर!!

    April 10, 2010 1:52 AM

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  7. आपने बहुत ही अच्छा लिखा है. बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देता है. बहुत बधाई

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