Tuesday, September 28, 2010

चांदनी रात और ज़िन्दगी!

खुशनुमा माहौल में भी गम होता है,
हर चांदनी रात सुहानी नहीं होती।

भूख, इश्क से भी बडा मसला है,
हर एक घटना कहानी नहीं होती।

दर्द की कुछ तो वजह रही होगी,
हर तक़लीफ़ बेमानी नही होती।

श्याम को ढूंढ के थक गई होगी,
हर प्रेम की मारी दिवानी नही होती।

शाम होते ही रात का अहसास,
विदाई सूरज की सुहानी नहीं होती।

हर इंसान गर इसे समझ लेता,
ज़िन्दगी पानी-पानी नहीं होती। 



Saturday, September 25, 2010

तुकबन्दी "UNLIMITED"!!





दोस्ती में कोई Hierarchy नहीं होती,
इश्क में कोई Limit  बाकी नही होती,

शराब अपने आप में इकदम मुकम्मल है,
हर शराबी के साथ हसीं साकी नहीं होती।

ज़िन्दगी AIR  का वो मधुर तराना है,
सुर है,ताल है, रेडिओ जौकी नही होती।

गम-ए-दुनिया के गोल पोस्ट, में दर्द की फ़ुटबाल 
लात खींचकर मारो,इस खेल में हाकी नहीं होती।

प्यार के दरिया में भी दौलत की नाव खेते हो,
मौज़ो में बहो दोस्त!,इस घाट तैराकी नहीं होती।

Friday, September 17, 2010

हर मन की"अनकही"!

मैं फ़ंस के रह गया हूं!
अपने
जिस्म,
ज़मीर,
ज़ेहन,
और
आत्मा 
की जिद्दोजहद में,

जिस्म की ज़रूरतें,
बिना ज़ेहन के इस्तेमाल,
और ज़मीर के कत्ल के,
पूरी होतीं नज़र नहीं आती!

ज़ेहन के इस्तेमाल,
का नतीज़ा,
अक्सर आत्मा पर बोझ 
का कारण बनता लगता है!

और ज़मीर है कि,
किसी बाजारू चीज!, की तरह,
हर दम बिकने को तैयार! 

पर इस कशमकश ने,
कम से कम 
मुझे,
एक तोहफ़ा तो दिया ही है!

एक पूरे मुकम्मल "इंसान"की तलाश का सुख!


मैं जानता हूं,
एक दिन,
खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!

वैसे ही!
जैसे उस दिन,
बाबा मुझे घर ले आये थे,
जब मैं गुम गया था मेले में! 

Tuesday, September 7, 2010

कहकशां यानि आकाशगंगा!

ऐ खुदा,

हर ज़मीं को एक आस्मां देता क्यूं है?
उम्मीद को फ़िर से परवाज़ की ज़ेहमत!  
नाउम्मीदी की आखिरी मन्ज़िल है वो।

हर आस्मां को कहकशां देता क्यूं है?
आशियानों के लिये क्या ज़मीं कम है?
आकाशगंगा के पार से ही तो लिखी जाती है, 
कभी न बदलने वाली किस्मतें!

दर्द को तू ज़ुबां देता क्यूं है?
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
अनकहे किस्सों को बयां देता क्यूं है?
किस्से गम-ओ- रुसवाई का सबब होते है|



क्या ज़रूरत है,
तेरे इस तमाम ताम झाम की?


ज़िन्दगी! 


बच्चे की मुस्कान की तरह


बेसबब!!


और
दिलनशीं! 


भी तो हो सकती थी!