Tuesday, July 5, 2011

"पेड या ताबूत"



आपको याद है न,
वो पेड!

नहीं! बरगद का नहीं!

अरे!


वो! जो आप सब के साथ,
जवाँ हुआ था,


अरे वो ही!

जो पौधे से वृक्ष बनने की कथा,
बडे दिलचस्प अँदाज़ मे बयाँ करता था!!

जिस के नीचे,
कई प्रेमी जोडे,
कभी न बिछ्डने की
कसम खा के,गये

और फ़िर कभी 
लौट के न आये,
’एक साथ’!

और जो गुहार लगाता था,
कि अगर कुछ नहीं हो सकता,
तो मुझे जाने दो,
पेपर मिल के आहते में,
और बन जाने दो,
हिस्सा उस कहानी का जो,
लिखी जाये मेरे सफ़ों पे,

अब पेड नहीं रहा,
टिम्बर बन गया,
वो पिछले हफ़्ते,

सुना हैं,
एक ताबूत बनाने वाली फ़र्म को मिला है
ठेका!
उस जीते जागते दरख्त को,
ताबूतों मे तब्दील कर देने का,
ताकि ताज़िन्दगी जो,
बात करता रहा "ज़िन्दगी" की,

उसे भी!

एहसास तो हो कि,
मौत भी कितनी हसीन और अटल सच्चाई है!  




5 comments:

  1. मौत भी कभी ज़िन्दगी बन जाती है

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  2. बहुत गहरी रचना।

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  3. पीड़ा का सुंदर शब्दांकन


    अब पेड नहीं रहा,
    टिम्बर बन गया,
    वो पिछले हफ़्ते,

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  4. पेड़ है तो ताबूत बनकर भी जिन्दगी की धड़कनों को महसूस करता रहेगा, गुजरी हुई धड़कनें ही सही।

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  5. आपकी कविता का भाव प्रशंसनीय है। आपकी पोस्ट अच्छी लगी ।मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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