Tuesday, July 31, 2012

इश्क-ए-बेपनाह!


मैं और करता भी क्या,
वफ़ा के सिवा!

मुझको मिलता भी क्या,
दगा के सिवा!

बस्तियाँ जल गई होंगी,
बचा क्या धुआँ के सिवा!

अब गुनाह कौन गिने,
मिले क्या बद्दुआ के सिवा!

कहाँ पनाह मिले,
बुज़ुर्ग की दुआ के सिवा!

दिल के लुटने का सबब,
और क्या निगाह के सिवा!

ज़ूंनून-ए-तलाश-ए-खुदा,
कुछ नही इश्क-ए-बेपनाह के सिवा!


15 comments:

  1. वाह....
    बहुत सुन्दर........
    लाजवाब शेर.

    अनु

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  2. अश्क को पानी न समझ मेरे दोस्त,
    इस सैलाब से खुदाई डरती है

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  3. मेरे अश्कों से डर गया होगा,
    वो चाँदनी बन के बिखर गया होगा!

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  4. इस सिवा के सिवा दुनिया में रखा क्या है..

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  5. वाह ... बहुत खूब

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  6. बहुत खूब ... मुझे मिलता भी क्या ...दगा के सिवा ..
    सच से रूबरू होती रचना ...

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    1. शुक्रिया दिगम्बर भाई आपने मेरे ख्याल से इत्तेफ़ाक रखा!

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  7. vehad sambedansheel rachana,"kabhi khud aayeene se rubru hokar dehko,
    such,khud b khud dil se utar chehare par najar aa jayga"

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  8. Replies
    1. आपने रचना पसंद की आपका धन्यवाद!

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  9. इस सुन्दरतम रचना के लिए बधाई स्वीकारें.

    कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर पधारें , अपनी प्रतिक्रिया दें , आभारी होऊंगा .

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  10. वाह बहुत सुन्दर लगी ये रचना बेहतरीन भाव पहली बार आई हूँ आपके ब्लॉग पर आना सार्थक हुआ मिलते रहेंगे शुभकामनाएं

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    1. आपका बहुत बहुत स्वागत है!

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  11. बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...
    बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!
    शुभकामनायें.

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बेहिचक अपने विचारों को शब्द दें! आप की आलोचना ही मेरी रचना को निखार देगी!आपका comment न करना एक मायूसी सी देता है,लगता है रचना मै कुछ भी पढने योग्य नहीं है.So please do comment,it just takes few moments but my effort is blessed.