ख्वाब पलकों के पीछे से चुभने लगे,
मेरा दिलबर मुझे रू-ब-रू चाहिये!
अँधेरा पुतलियों तक पहुँचने लगा,
नूर तेरा मुझे अब चार सू चाहिये!
फ़ूल कागज़ के हैं ये महकते नहीं,
गेसुओं की तेरे मुझको वो बू चाहिये!
आँख से जो गिरा अश्क है बेअसर,
जो लफ़्ज़ों मे हो वो लहू चाहिये!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (16-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
मुझे इस सम्मान के काबिल समझने के लिये आपका शुक्रिया, वन्दना जी!
ReplyDeletesundar prastuti..
ReplyDeleteख्वाब पलकों के पीछे से चुभने लगे,
ReplyDeleteमेरा दिलबर मुझे रू-ब-रू चाहिये!
....वाह! बहुत उम्दा प्रस्तुति...
सुंदर
ReplyDeleteफ़ूल कागज़ के हैं ये महकते नहीं,
ReplyDeleteगेसुओं की तेरे मुझको वो बू चाहिये!..
वह ... मासूम सी चाह ... जरूर मिलेगी ...
आँख से जो गिरा अश्क है बेअसर,
ReplyDeleteजो लफ़्ज़ों मे हो वो लहू चाहिये..
वाह! बहुत खूब!..बहुत बढ़िया