’IndiBlogger.in’ पर हुये एक discussion के अन्श.पहला विचार मेरा है, और दूसरा उस पर प्रतिक्रिया. बहस का मुद्दा ये था कि लोग Blogging क्यों करते हैं? MY views: As I understand it,each soul is living under a veil ,creativity is the glimpse of that real look that all of us are granted by the creator.So when the inner thought process becomes so intense that you cannot hold it to just yourself because it belongs to larger cosmos (you) or any one, writes/paints/sings /laughs/or some times just smiles, like the infants in their sleep . I think that is the compulsion of creativity. You may find futher supportive argument at the link below: http://sachmein.blogspot.com/2009/04/blog-post.html | |
A reaction on my veiws: Brilliant! Love the way you have put this in words! I feel the same way too! In fact, I call my blog as the entity that looks at my reflection in the mirror through my eyes... my TRUE 'alter ego' perhaps ??? Or a 'split personality' perhaps? |
ये सब हैं चाहने वाले!और आप?
Tuesday, May 19, 2009
हम बोलेगा तो बोलोगे,के बोलता है!
Monday, May 18, 2009
दर्द की मिकदार को तौल कर देखें
जहाँ से दर्द की मिक़दार क़म हो, ये करना होगा.
मसीहा कौन है ,और कौन यहाँ रह्बर है,
हर इंसान को इस राह पे, अकेले ही चलना होगा.
तेज़ हवाएँ भी हैं सर्द ,और अंधेरा भी घना,
शमा चाहे के नही उसे हर हाल में जलना होगा.
Saturday, May 16, 2009
तुम्हारा सच!
हम शेर कहें एसे ज़माने भी आयेगें।
कल रात इस ख्याल से मैं सो नहीं सका,
गर सो गया तो ख्याब सुहाने भी आयेगें।
दुश्मन जो आये कब्र पे,मिट्टी ने ये कहा,
छुप जाओ अब दोस्त पुराने भी आयेंगे।
जो दर्द गैर दे के गये, उनका भी शुक्रिया
अब दोस्त मेरे दिल को दुखाने भी आयेगें।
मैं सज़दा कर रहा था, और पत्थर बना था तू
इस दर पे कभी सर को झुकाने ना आयेगें।
गर तू खुदा था तो मुझे सीने से लगाता,
अब रूठ के तो देख हम मनाने न आयेगें।
इन्सान तो हम भी हैं संगे राह तो नहीं
ठोकर लगे तो लोग क्या उठाने ना आयेगें।
Tuesday, May 12, 2009
झूंठ के पावों के निशान!
कौन कहता है के,'झूंठ के पावं' नही होते.
मैं चीख चीख के सब को बताता रह गया,
फिर ना कहना,'दीवारों के भी कान' होते हैं.
सारे हाक़िम लपक कर उसके पावं छू आए,
तब मैं जान गया,'क़ानून के हाथ' लंबे हैं.
Sunday, May 3, 2009
यादों के आईने से!
मैं नही माँगता दौलत के खजाने तुम से,
मचलता बच्चा हूँ, सीने से लगा कर देखो.
तुमको भूलूँ और,कभी याद ना आऊँ तुमको,
ऐसी फ़ितरत नहीं, यादों में बसा कर देखो.
गर तलाशोगे,तुम्हें पहलू में ही मिल जाऊँगा,
मैं अभी खोया नही हूँ,मुझको बुला कर देखो.
अश्क़ का क़तरा हूँ,आँखों में बसाकर देखो.
मेरे चहेरे पे पड़ी गर्द से मायूस ना हो,
मैं हँसी रूह हूँ ,ये धूल हटाकर देखो.
Sunday, April 26, 2009
एक बार फिर से पढें!
हाथ में इबारतें,लकीरें थीं,
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरें थी।
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था,
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थीं।
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे,
उनके हाथों में मगर शमशीरें थीं।
खुदा समझ के रहे सज़दे में ताउम्र जिनके,
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थीं।
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को,
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थीं।
Saturday, April 18, 2009
वख्त का सच!
आईना घिस जायेगा,
अब और ना बुहारो यारों,
गर्द तो चेहरे पे पडी है,
ज़रा एक हाथ फ़िरा लो यारो।
न करो ज़िक्र गुजरे
हुये ज़माने का ,
मुश्किल हालात हैं,
अब खुद को सम्भालों यारो।
मैं तो गुज़र जाउंगा,
नाकामियाँ अपनी लेकर,
तुमको तो रहना है अभी,
ज़रा खुद को संवारों यारो।
Sunday, April 12, 2009
मन का सच!
कुफ़्र मेरा तो ये बेबाक ज़ुबानी है।
मैं, तू, हों या सिकन्दरे आलम,
जहाँ में हर शह आनी जानी है।
ना रख मरहम,मेरे ज़ख्मों पे यूं बेदर्दी से,
तमाम इन में मेरे शौक की निशानी है।
Wednesday, April 1, 2009
उसका सच!
मुझे लग रहा है,पिछले कई दिनों से ,
या शायद, कई सालों से,
कोई है, जो मेरे बारे में सोचता रहता है,
हर दम,
अगर ऐसा न होता ,
तो कौन है जो, मेरे गिलास को शाम होते ही,
शराब से भर देता है।
भगवान?
मगर, वो ना तो पीता है,
और ना पीने वालों को पसंद करता है ,
ऐसा लोग कह्ते हैं,
पर कोई तो है वो !
कौन है वो, जो,
प्रथम आलिगंन से होने वाली अनुभुति
से मुझे अवगत करा गया था।
मेरे पिता ने तो कभी इस बारे में मुझसे बात ही नहीं की,
पर कोई तो है, वो!
कौन है वो ,जो
मेरी रोटी के निवाले में,
ऐसा रस भर देता है,
कि दुनियां की कोई भी नियामत,
मुझे वो स्वाद नहीं दे सकती।
पर मैं तो रोटी बनाना जानता ही नही
कोई तो है ,वो!
कौन है वो ,जो,
उन तमाम फ़ूलों के रगं और गंध को ,
बदल देता है,
कोमल ,अहसासों और भावनाओं में।
मेरे माली को तो साहित्य क्या, ठीक से हिन्दी भी नहीं आती।
कोई तो है ,वो,
वो जो भी है,
मैं जानता हूं, कि,
एक दिन मैं ,
जा कर मिलु्गां उससे,
और वो ,हैरान हो कर पूछेगा,
क्या हम, पहले भी ,कभी मिलें हैं?
Tuesday, March 31, 2009
माहौल का सच!
लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से.
चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से
मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.
इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
मौला तू , दिखा रास्ता अपने ज़माल से.
Saturday, March 28, 2009
किरदार का सच!
मेरी तकरीबन हर रचना का,
एक "किरदार" है,
वो बहुत ही असरदार है,
पर इतना बेपरवाह ,
कि जानता तक नहीं,
कि 'साहित्य' लिखा जा रहा है,
'उस पर'
मेरे लिये भी अच्छा है,
क्यों कि जिस दिन,
वो जान गया कि,
मैं लिख देता हूं,
'उस पर'
मेरी रचनाओं में सिर्फ़
शब्द ही रह जायेगें।
क्यों कि सारे भाव तो ,
'वो' अपने साथ लेकर जायेगा ना!
शर्माकर?
या शायद,
घबराकर!!!!
Thursday, March 26, 2009
अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी!( Part II)
दर्द की धूप से ,बादल में बदल जाउंगा।
बन के आंसू कभी आंखों से, छलक जाता हूं,
शब्द बन कर ,कभी गीतों में निखर जाउंगा।
मुझको पाने के लिये ,दिल में कुछ जगह कर लो,
मु्ठ्ठी में बांधोगे ,तो हाथों से फ़िसल जाउंगा।
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