Monday, July 27, 2009

गर्द-ए-सफ़र-ए- इश्क!

गर्द-ए-सफ़र-ए-इश्क वो लाया है,
खाक कहता है,तू,उसे जो सरमाया है.

क्यों कर सजे तब्बसुम अब लब पर तेरे,
संगदिल से तू ने क्यूं कर दिल लगाया है.

कोशिश भी न करना मसर्रत-ए-दीदार की,
कभी था तेरा,वो बुते हुश्न अब पराया है.

ज़िक्र-ए-वफ़ा भी मेरा क्यूं गुनाह हो गया,
उसकी बेवाफ़ाई को,मैने जां दे के भी निभाया है.

उफ़्फ़क पे जाके शायद, मिल जाते,
मैं अगर आसमां, और तू ज़मीं होता

इस दुनियां में सब मुसाफ़िर हैं,
कोई मुस्तकिल मकीं नही होता
.


सौ बार आईना देख आया,
फ़िर भी क्यूं खुद पर यकीं नही होता.


दिल के टुकडे बहुत हुये होगें,
यूं ही कोई गमनशीं नहीं होता!

Friday, July 24, 2009

अनामिका

अनुचरी,अर्धागिंनी,भार्या
कोई भी नाम मैने तो नहीं सुझाया,

न ही,स्वयं के लिये चुने मैने सम्बोधन
जैसे कि प्राणनाथ,स्वामी आदि,

फ़िर कब हम दोनो बन्ध गये
इन शब्दों की ज़न्जीरों से.

क्या इन के परे भी है कोई
ऐसा सीधा और सरल सा,
रिश्ता जो कोमल तो हो,
पर मज़बूत इतना,

जैसे पेड से लिपटी बेल,
जैसे तिल के भीतर तेल
जैसे पुल से गुज़रती रेल,
’आइस-पाइस’ का खेल,

चलो क्यो बांधें इसे,
उपमाओं में
मैं और तुम क्या काफ़ी नहीं,
इस जीवन को परिभाषित करने के लिये?


Wednesday, July 22, 2009

रास्तों का सच!


एक शमा की सब वफाएं,जब हवा से हो गयी.
बे चरांगा रास्तों का लुत्फ़ ही जाता रहा.


तुम अंधेरे की तरफ कुछ इस क़दर बढ़ते गये,
रौशनी मैं देखने का हुनर भी जाता रहा.


(दिल करता है कि इस शेर को कुछ ऐसे लिखूं:)

तुम सितारों की चमक में,कुछ इस क़दर मसरूफ़ थे,
के रोशनी में देखने का हुनर ही जाता रहा.


जितने मेरे हमसफ़र थे अपनी मंज़िल को गये,
मैं था, सूनी राह थी, और एक सन्नाटा रहा .


हाल-ए-मरीज़े इश्क़ का मैं क्या करूँ तुमसे बयाँ,
हर दवा का,हर दुआ का असर ही जाता रहा.

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लुत्फ़:Fun

हुनर:The art/ Capability of..

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Saturday, July 18, 2009

किरदार का सच!( फ़िर से)


मेरी तकरीबन हर रचना का,
एक "किरदार" है,
वो बहुत ही असरदार है,
पर इतना बेपरवाह ,
कि जानता तक नहीं,
कि 'साहित्य' लिखा जा रहा है,

'उस पर'

मेरे लिये भी अच्छा है,
क्यों कि जिस दिन,
वो जान गया कि,
मैं लिख देता हूं,

'उस पर'

मेरी रचनाओं में सिर्फ़
शब्द ही रह जायेगें।

क्यों कि सारे भाव तो ,
'वो' अपने साथ लेकर जायेगा ना!

शर्माकर?

या शायद,

घबराकर!!!!


Saturday, July 11, 2009

जाने क्या?


तमाम शहर रौशन हो, ये नही होगा,
शमा जले अन्धेरे में ये मज़बूरी है.

दर्द मज़लूम का न गर परेशान करे,
ज़िन्दगी इंसान की अधूरी है.

ज़रूरी काम छोड के इबादत की?
समझ लो खुदा से अभी दूरी है.

सच कडवा लगे तो मैं क्या करूं,
इसको कहना बडा ज़रूरी है.

फ़ौर your eyes Only!













एक e-mail से मिला चित्र!
आप सोच लो बच्चे और जानवर तक जान गये है ,ईश्वर सब से बडी सत्ता है.
पर चंद इन्सान जो ये नही मानते कब समझेंगे?


Friday, July 10, 2009

मेरा सच


मै अपने आप से कभी घबराता नहीं,
पर खाम्खां सरे आईना यूंहीं जाता नहीं.

चापलूसी,बेईमानी,और दगा,
ऐसा कोई फ़न मुझे आता नहीं.

बात हो सकता है के ये कडवी लगे,
क्या करूं मैं,झूठं बोला जाता नहीं.

दिल तो करता है तुम्हें सम्मान दूं,
मेरी फ़ितरत को मगर भाता नहीं.

कैसे बैठूं मैं तुम्हारी महफ़िल में,
जब तुम से सच मेरा सहा जाता नहीं.

मत दिलाओ दिल को झूठीं उम्मीदें,
इश्क वालों से अब ज़िया जाता नहीं.

जा मरूं मैं दर पे जाके गैर के,
राय अच्छी है,पर किया जाता नहीं.



Thursday, July 9, 2009

बचपन की बातें!


मेरे बचपन में,
मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने,
मुझसे पूछा,
क्या मै सुन्दर हूं ?
मैने कहा हां! मगर क्यों?
उसने कहा । यूं ही!

मैनें कहा, ओके.

मेरे बचपन में,
मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने,
मुझसे पूछा,
क्या मैं ताकतवर हूं?
मैने कहा हां! आखिर क्यों?
उसने कहा यूं ही!

मैनें कहा। ऒके.

अभी हाल में एक दिन ,

मेरे बचपन के उसी सबसे अच्छे दोस्त ने, मुझसे पूछा,
क्या अब मैं ,तुम से ज्यादा 'सुन्दर,अमीर और ताकतवर हूं?'

मैं चुप रहा!

मेरे दोस्त ने कहा ! ऒके!!!!!!!!!



Tuesday, July 7, 2009

अरमान



रूठना वो तेरा ऐसे,
कहीं कुछ टूट गया हो जै
से.



बहुत बेरंग हैं आज शाम के रंग,
इंद्रधनुष टूट गया हो जैसे.


वो मेरे अरमान तमाम बिखरे हुए,
शीशा कोई छूट गया हो जैसे.


बात बहुत सीधी थी और कह भी दी
तू मगर भूल गया हो जैसे.


कहते कहते यूँ तेरा रुक जाना,
साजिंदा रूठ गया हो जैसे.


Monday, July 6, 2009

नज़दीकियों का सच!

इस रचना को जो तव्वजो मिलनी चाहिये थी, शायद नहीं मिली,इस लिये एक बार फ़िर से post कर रहा हूं.

दूरियां खुद कह रही थीं,
नज़दीकियां इतनी न थी।
अहसासे ताल्लुकात में,
बारीकियां इतनी न थीं।

चारागर हैरान क्यों है,
हाले दिले खराब पर।
बीमार-ए- तर्के हाल की,
बीमारियां इतनी न थीं।

रो पडा सय्याद भी,
बुलबुल के नाला-ए- दर्द पे।
इक ज़रा सा दिल दुखा था,
बर्बादियां इतनी न थीं।

उसको मैं खुदा बना के,
उम्र भर सज़दा करूं?
ऐसा उसने क्या दिया था,
मेहरबानियां इतनी न थीं।


Saturday, July 4, 2009

चमन का सच


राज़ अपने सारे मेरी पेशानी पे वो लिख गया
बहुत मासूम है उसे ख्याब छुपाने नही आते.

मै बादल हूं,यहां से मेरा गुम जाना ही बेह्तर है,
नम पलकों को, बारिश के ये ज़माने नही भाते.

चलो अब नींद से भी अपना रिश्ता तोड लेता हूं,
खुली आंखो में तो, ख्याब सुहाने नहीं आते.

गली तेरी क्या, तेरे शहर का भी अब रुख न करेंगे,
चमन की चाह है, हम फ़ूलों को रूलाने नहीं आते.