ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

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Friday, January 27, 2012

Please! इसे कोई न पढे! चुनाव सर पर हैं!


थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,


बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,


वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,


और था एक पत्थर भी,


वो भी रास्ते का,


सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,


जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,

वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,

बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!


बीन सुन कर 
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।

भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!



सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं, 
नितांत यर्थाथ में।

Sunday, July 10, 2011

अल्ल बल्ल गल्ल...........!!!!!

अब कहाँ से लाऊँ,
हर रोज़ नये लफ़्ज़,
जो आपको,भायें!

मेरी कवितायें,
आपको पसंद आयें!

हैं कहाँ, लफ़्ज,
जो बयाँ कर पायें,
दास्ताँने हमारी और आपकी,
हम सब,और उन सबकी,

दर असल सारी की सारी कहानी,
घूमती है,एक छोटे से दायरे के इर्द गिर्द,

चन्द लफ़्ज़ों और जज़्बातों के चारों ओर,
गोल गोल एक बवंडर के माफ़िक,

लफ़्ज़ भी जाने पहचाने हैं,
और जज़्बात भी,
फ़िर भी इंसान है तलाश में,
कुछ नये की!

शब्द अल्बत्त्‍ता सब पुराने हैं,
अपने ही मौहल्ले के बाशिन्दों के चेहरों की माफ़िक,


यकीं नहीं है,
तो जरा इन लफ़्ज़ों से ,
नज़र बचा कर दिखाओ!!!

मोहब्बत,
मज़बूरी,
हालात,
कमज़ोरी,
हिम्मत,
दौलत,
दस्तूर,
जज़्बात,
.....
......
.......
........

जवानी,
अमीरी,
गरीबी,
इसकी,उसकी
भूख प्यास ,सुख ,दुख....


और तमाम दुनिया भर की,
अल्ल बल्ल गल्ल.................!

Tuesday, December 14, 2010

लडकियाँ और आदमी!



लडकियाँ कितनी ,
सहजता से,
बेटी से नानी बन जातीं है!


लडकियाँ आखिर,
लडकियाँ होती हैं!


शिव में ’इ’ होती है,
लडकियाँ,
वो न होतीं तो,
’शिव’ शव होते!


’जीवन’ में ’ई’,
होतीं हैं लडकियाँ
वो न होतीं तो,
वन होता जीव-’न’ न होता!
या ’जीव’ होता जीव-न, न होता!


और ’आदमी’ में भी,
’ई’ होतीं हैं,यही लडकियाँ!


पर आदमी! आदमी ही होता है!
और आदमी लडता रह जाता है,
अपने इंसान और हैवानियत के,
मसलों से!
आखिर तक!


फ़िर भी कहता है,
आदमी!
क्यों होती है?
ये ’लडकियाँ’!


हालाकि,
न हों उसके जीवन में,
तो रोता है!
ये आदमी!


है न कितना अजीब ये,
आदमी!