Monday, June 29, 2009

क्या ये सच है!

नया कुछ भी नहीं,ज़िन्दगी हस्बेमामूल चलती है.
लौ ख्यालों की है रौशन ,मोम उम्र की पिघलती है.

मै नहीं चाहता दुनियां से कुछ भी कहना,
जेहन में ,क्यों नदी अरमानों की मचलती है.

मैने चाहा ही नही ,तुझको कभी याद करूं,
बर्फ़ यादों की ये, क्यों नही पिघलती है.

सर्द यादों को तो तेरी,मै कब का दफ़न कर आया,
तपिश गमों की लहू बन के, मेरी रगो में फ़िसलती है.

मै तो गुज़र जाऊगां बरसात के मौसम की तरह,
काई मोहब्त की तो, दिल पे बाद में उभरती हैं.

Saturday, June 27, 2009

शायद सच हो!


Abraham Lincoln was elected to Congress in 1846.
John F. Kennedy was elected to Congress in 1946.


Abraham Lincoln was elected President in 1860.
John F. Kennedy was elected President in 19 60.


Both were particularly concerned with civil rights.
Both wives lost their children while living in the White House.


Both Presidents were shot on a Friday.
Both Presidents were shot in the head.


Now it gets really weird.


Lincoln 's secretary was named Kennedy.
Kennedy's Secretary was named Lincoln .


Both were assassinated by Southerners.
Both were succeeded by Southerners named Johnson.


Andrew Johnson, who succeeded Lincoln , was born in 1808.
Lyndon Johnson, who succeeded Kennedy, was born in 1908.


John Wilkes Booth, who assassinated Lincoln , was born in 1839.
Lee Harvey Oswald, who assassinated Kennedy, was born in 1939.


Both assassins were known by their three names.
Both names are composed of fifteen letters.

Now hang on to your seat.

Lincoln was shot at the theater named 'Ford.'
Kennedy was shot in a car called ' Lincoln ' made by 'Ford.'

Lincoln was shot in a theater and his assassin ran and hid in a warehouse.
Kennedy was shot from a warehouse and his assassin ran and hid in a theater.

Booth and Oswald were assassinated before their trials.

And here's the kicker...

A week before Lincoln was shot, he was in Monroe, Maryland.
A week before Kennedy was shot, he was with Marilyn Monroe.

एक e-mail के ज़रिये मिला अनोखा सच! शायद सच हो!

Thursday, June 25, 2009

जादू का सच!

क्या कहा?, जादू दिखाओगे!
जाने दो फ़िर बेवकूफ़ बनाओगे.

वख्त आने पे बरसात होती है,
ये बात तुम प्यासों को बताओगे.

मेरे ज़ख्मों को बे मरहम ही रहने दो,
ये खुले , तो तुम बिखर जाओगे.

बम धमाके में,वो ही क्यों मरा,
उसकी मां को ,ये कैसे समझाओगे.

मैने माना पढा दोगे, सारे अनपढों को
काबिल जो भूल गये है,सब,उन्हें क्या बताओगे.


Tuesday, June 23, 2009

अरमान

रूठना वो तेरा ऐसे,
कहीं कुछ टूटा गया हो जै
से.


बहुत बेरंग हैं आज शाम के रंग,
इंद्रधनुष टूटा गया हो जैसे.


वो मेरे अरमान तमाम बिखरे हुए,
शीशा कोई छूट गया हो जैसे.


बात बहुत सीधी थी और कह भी दी
तू मगर भूल गया हो जैसे.


कहते कहते यूँ तेरा रुक जाना,
साजिंदा रूठा गया हो जैसे.



Friday, June 19, 2009


वो देखो दौड़ के मंज़िल पे जा पहुँचा,
कौन कहता है के,'झूंठ के पावं' नही होते.

मैं चीख चीख के सब को बताता रह गया,
फिर ना कहना,'दीवारों के भी कान' होते हैं.

सारे हाक़िम लपक कर उसके पावं छू आए,
तब मैं जान गया,'क़ानून के हाथ' लंबे हैं.

Tuesday, June 16, 2009

समंबन्धो का गणित


समंबन्धों के अंक गणित ,
कितने विचित्र हैं,
मस्तिष्क के छोटे से कैनवास पर,
न जाने कितने मानचित्र है.

चाहता है जब किसी से,
आदमी जाने कितना जोड लेता है,
लेता जब उससे, कितना घटा देता है,

अलग अलग मामले में,
अलग फ़ार्मूला एप्लाई करता है,
अपने गम सौ से मल्टीप्लाई,
दूसरे के गम हज़ार से डिवाइड करता है,
अपनी मुसीबतें लिये,
जहां भर को गाइड करता है,

देखता हूं तुमको जब,
बस इक बवाल आता है,
हर बार वही,
हाइट और डिस्टैन्स का सवाल आता है,

मेरा ये कहना, ये डिस्टैन्स तो कम हो,
तुम्हारा बताना ज़रा अपनी हाईट पे तो ध्यान दो,

बस अब तो दूर कर दो ये कन्फ़ूज़न,
और दे दो सैटिस्फ़ैक्शन,
कितनी हाईट ज़रूरी है और कितना परफ़ैक्शन
कितना और उठ जाऊं ,मै तुम्हें पाने को,
कितनी हाइट और ज़रूरी है ये डिस्टैन्स मिटाने को,

जिस सर्किल की तुम त्रिज्या हो,
उसकी परिधि मुझसे ही बनी है,
कहते हैं,सर्किल के केन्द्र को परिधि से मिलाने वाली रेखा,
त्रिज्या कहलाती है,
न जाने क्यों मुझे यही रेखा नही मिल पाती है,


हम अगर कभी मिल न पायें,
तो कम से कम समानान्तर ही आ जायें,

क्यों कि सुना है,
दो समानान्तर रेखाओं को,
चाहे जितनीं आडी तिरछी रेखायें काटतीं है,
आमने सामने के कोणों को,
हमेशा बराबर का बांटतीं हैं.
हमेशा बराबर का बांटतीं हैं.
..... हमेशा.......

इस गणितीय कविता का एक इतिहास भी है,आज से तकरीबन २०-२५ साल पहले जब हम जवान थे(मतलब के ताज़ा ताज़ा जवान हुये थे) और ज़िन्दगी की जद्दोजहद में गणित, बोटोनी,ज़ूलोजी एक अहम जगह रखतीं थी,एक शायराना जमीन मिली थी,’मस्तिष्क के कैनवास पर न जाने कैसे कैसे मन्ज़र है’ .
हमारे अज़ीज मित्र श्री अम्लेन्दु’अमल’ ने इसे लपक लिया और उपर उद्धरत उतक्र्ष्ट रचना को अवतरित किया था.
यह तबसे हम मित्रो और जानने वालों में खासी लोकप्रिय रही है, और ’मित्र सम्मेलनों’ में बडे चाव से सुनी सुनाई जाती थी. (हम में से कई तो इसे अपनी अपनी बता कर खासी वाह वाही भी लूट चुके हैं)

आज कई वर्ष बीत जाने के बाद जब जीवन में गणित की वो जगह नहीं बची ,फ़िर भी"समबन्धो का गणित" समझाती ये कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.

अपने Blog के पाठकों के साथ बांटने का लोभसंवरण नहीं कर पा रहा हूं. पता नहीं ,"अमल" कैसे react करेगा.माफ़ी तो मैं मागुंगा नहीं,क्यों कि उसने मेरी ज़मीन लपकी, मैंने कविता लपक ली!

Monday, June 15, 2009

ताल्लुकात का सच!


मुझसे कह्ते तो सही ,जो रूठना था,
मुझे भी , झंझटों से छूटना था.

तमाम अक्स धुन्धले से नज़र आने लगे थे,
आईना था पुराना, टूटना था.

बात सीधी थी, मगर कह्ता मै कैसे,
कहता या न कहता, दिल तो टूटना था.

मैं लाया फूल ,तुम नाराज़ ही थे,
मैं लाता चांद, तुम्हें तो रूठना था.

याद तुमको अगर आती भी मेरी,
था दरिया का किनारा , छूटना था.

Friday, June 12, 2009

नज़दिकीयों का सच!(Part II)


रास्ते में संग भी थे,
खार थे, थी मुश्किलें.
मैं मगर आगे न बढता,
लाचारियां इतनी न थीं.

शहर के पागल सजर में
ढूंडता उसको कहां,
उस अज़ी्जो आंशनां की,
नीशानियां इतनी न थीं.

दोस्तों की संगदिली का,
क्या करें सबसे गिला,
इक ज़रा सी बेरुखी थी,
बेईमानियां इतनी न थीं.

वो सरापा सामने था,
या था वो बस एक सराब,
सरे शोरीदः हाल था,
नादानियां इतनी न थीं.

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सरापा :- आमने सामने/Face to face

सराब :- मृगतृष्णा/Mirage

सरे शोरीदः :-इश्क का पागलपन

Thursday, June 11, 2009

बस एसे ही!(Part II)


बहुत पहले एक गज़ल कही थी,

"मैं तुम्हारा नहीं हूँ ,ये बात तो मैं भी जानता हूँ.
मेरी तकलीफ ये है कि, ये बात तुम कहते क्यों हो." Link of the same is given below:


उसी ख्याल पे चंद अंदाज़ और देखें:

कह चुके तुम बात अपनी,
आंखें हमारी नम.

होठ पे मुस्कान तेरे,
दिल में हमारे गम.

दुश्मन नहीं हैं हम तुम्हारे,
मान लो सनम.

महवे आराइश रहो तुम,
हम करे मातम.

फूल लाना तुर्बत पे मेरी,
ज़िन्दगी है कम.

ज़र्रा हूं मै,तुम सितारा,
कैसे हो संगम.


Tuesday, June 9, 2009

मैं नहीं हूं!

वीनस केसरी की नज़र है ये नज़्म.उनके एक Blog ’आते हुये लोग’ http://venuskesari.blogspot.com/2009/04/blog-post_24.html पर प्रस्तुत एक रचना
को पढ कर ये विचार विन्यास उत्पन्न हुया.आप सब भी आन्न्द लें!

मै गज़ल हूं,
पढे कोई.

मेरी किस्मत,
गढे कोई.

मै सफ़र हूं,
चले कोई.

मै अकेला,
मिले कोई.

मै अन्धेरा,
जले कोई.

मैं हूं सन्दल,
मले कोई.

मै नहीं हूं,
कहे कोई.


नज़दीकियों का सच!


दूरियां खुद कह रही थीं,
नज़दीकियां इतनी न थी।
अहसासे ताल्लुकात में,
बारीकियां इतनी न थीं।

चारागर हैरान क्यों है,
हाले दिले खराब पर।
बीमार-ए- तर्के हाल की,
बीमारियां इतनी न थीं।

रो पडा सय्याद भी,
बुलबुल के नाला-ए- दर्द पे।
इक ज़रा सा दिल दुखा था,
बर्बादियां इतनी न थीं।

उसको मैं खुदा बना के,
उम्र भर सज़दा करूं?
ऐसा उसने क्या दिया था,
मेहरबानियां इतनी न थीं।