Sunday, December 1, 2013

इश्क एक हादसा

"इश्क एक हादसा!

एक दम वैसा ही,


जैसे,

मन के शीशे को,


बेचैनी के पत्थर से,


किरच किरच में ,पसार देना,


और फ़िर,


लहू लुहान हथेलियों को,


अश्क के मरहम से देना,


’मसर्रत’!


और कौन?


फ़िर,अपने आपसे पूछना भी!"

Wednesday, November 20, 2013

ठहराव!

कितना मुश्किल है,
किसी भी इंसा के लिये,
चलते चलते,रूक जाना
खुद ब खुद!

थक कर चूर,
कुछ मुसलसल चलने वाले
चाहते थे रूकना!
कभी,छाँव न मिली,
कभी रास न आया थकना।

मेंने कहा,अब रूक भी जाओ,
कोई,इक थोडी देर,
बस यूँ ही ज़रा,
वो बोले,
मगर कैसे?


जैसे,खोल दे कोई,
बंद मुठृठी को, मैंने कहा

वो  बोले,घबराकर,
मगर कैसे?

सच में कितना मुश्किल होता है,
जिन्दगियों का आसां होना।

रूके कोई क्यूं,
मौत के आगोश,से,
पहले भला!

चलते रहने का,क्यूँ
यूँ हीं चले ये सिलसिला?

Saturday, September 21, 2013

फ़क़ीरी

खा़र होने की भी कीमत चुकाई है मैने
गुलों के जख्म जिगर में छुपाये फिरता हूँ!


कभी ज़ुल्फ़ों की छाँव में भी पैर जलते हैं
कभी सेहरा को भी सर पे उठाये फ़िरता हूँ!


अजीब फ़िज़ा है शहर की ये मक़तल जैसी
बेगुनाह हूँ मगर मूँह छुपाये फ़िरता हूँ!


लूट लेंगे सब मिल कर शरीफ़ लोग है ये,
शहर-ए- आबाद में फ़कीरी बचाये फ़िरता हूँ!

Sunday, August 18, 2013

औरत और दरख्त!

औरत और दरख्त में क्या फ़र्क है?

मुझे नज़र नहीं आता,

क्या मेरी बात पे
आपको यकीं नहीं आता!

तो गौर फ़रमाएं,

मैं गर गलत हूँ!
तो ज़ुरूर बतायें

दोनों दिन में खाना बनाते हैं
एक ’क्लोरोफ़िल’ से,
और दूसरी
गर कुछ पकाने को न हो,
तो सिर्फ़ ’दिल’ से!

एक रात को CO2 से साँस बनाये है,
दूसरी हर साँस से आस लगाये है,

पेड की ही तरह ,
औरत मिल जायेगी,
हर जगह,

खेत में, खलिहान में,

घर में, दलान में,

बस्ती में,श्मशान में,

हाट में, दुकान में,

और तो और वहाँ भी,
जहाँ कॊई पेड नहीं होता,

’ज़िन्दा गोश्त’ की दुकान में!

अब क्या ज़ुरूरी नहीं दोनों को बचाना?

Thursday, August 8, 2013

चाँद! ईद का!

चाँद तो चाँद है,

ईद का हो!

दूज का  हो!

हो पूनम का!


या,

चेहरा सनम का!

चाँद तो चाँद है.

   _कुश शर्मा.

मगर ये भी याद रखना है ज़ुरूरी,

"धूप लाख मेहरबाँ हो,मेरे दोस्त,
धूप, धूप होती है,चाँदनी नहीं होती"
     _शायर (न मालूम)
 

Saturday, July 27, 2013

दुआ का सच!

ज़ख्म देता है कोई,मुझे कोई दवा देता है,
कौन ऐसा है,यहाँ जो मुझको वफ़ा देता है!


ये बारिशें भी कब यहाँ साल भर ठहरतीं है,
हर नया मौसम मिरे ज़ख्मों को हवा देता है।



तेरी बातें न करूँ मैं, अगर दीवारों से,
है कोई काम?जो दीवानों को मज़ा देता है!


दुश्मनों से ही है अब एक रहम की उम्मीद,
है कोई दोस्त, जो, मरने की दुआ देता है?

Tuesday, July 16, 2013

गाल का तिल!

मैं कब का,निकल आता 

तेरी जुदाई के सदमें से,

और भूल भी जाता तुझको,

मगर कुदरत की नाइंसाफ़ियों का क्या करूँ?

तुझे याद भी नहीं होगा,


वो ’मेरे’ गाल का तिल,


जिसे चूमते हुये,


तूने दिखाया था,


अपने गाल का तिल!

Sunday, June 30, 2013

तलाश एक अच्छे इन्सान की।


यूँ  ही,
कल रात,
बेसाख्त: लगा ढूँडने
एक अच्छा इन्सान,

रात काफ़ी हो गई थी,
और थी थोडी थकान,

फ़िर भी
मन के फ़ितूर को
शान्त करना भी था 
"ज़रूरी"

अब मेरी आदत कह लीजिये,
या यूँ ही!
दफ़्तन ’दस्तूरी’

मैंने कहा क्यूँ कहीं और जायें?
क्यों न अपने पहलू में ही गौर फ़र्मायें!

जा मिला मैं आईने से!
और पूछा ,
है भला कोई यहाँ!

मुझसे ’भला’?

एक आवाज़ कहीं दूर से,
आई या वहम के बाइस सुनाई दी!

"बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलया कोय
जब घट देखा आपना,
मुझ से बुरा न कोय"

कबीर साहब,
इतना ’सच’ किस काम का!
के जीना ही दुश्‍वार हो जाये!  

केदारनाथ की जय हो!


"मैं तो नूर बन के तेरे दीदों में रहता था,
तोड दीं जो तूने उन उम्मीदों में रहता था!"

"जब तक पूजते रहे तो पत्थर में भी खुदा थे,
जब से बिके बाज़ार में,शिव पत्थर के हो गये!

"जब ज़र्रे ज़र्रे में मैं हूँ तो पत्थर में क्यों नहीं,
अज़ाब* भी तो मेरा रंग है,मेरे घर में क्यूँ नहीं?

और एक नज़र हकीम ’नासिर’ साहिब के दो शेर जो केदारनाथ धटनाक्रम पर सटीक बात कहते नज़र आते हैं

I hope Kedarnath (भगवान केदारनाथ) is listening too,
"पत्थरों आज मेरे सर पे बरसते क्यूँ हो,
मैंने तुम को भी कभी अपना खुदा रक्खा है।"

And for the victims at Kedarnath
"पी जा अय्याम की तल्खी को भी हँस के ’नासिर’
ग़म को सहने में भी कुदरत ने मज़ा रक्खा है!"
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* अज़ाब = पीड़ा, सन्ताप, दंड

Friday, May 31, 2013

बुत और खुदा!

तपन हुस्‍न की कब ता उम्र रही है कायम,
मेरे सब्र की ज़मीं ने हर मौसम को बदलते देखा है।

अब ऐसी नींद भी खुदा किसी को न अता करे,

मैंने अक्सर अपनी रुह को ख्वाबों में जलते देखा है।

वख़त बुरा आये तो कभी दोस्तों को मत ढूँडो,
अँधेरी रात में कभी,साये को साथ देखा है?


हर चमकती सुबह को स्याह रात में ढलते देखा है,
हमने अपने खुदाओ को अक्सर बुत में बदलते देखा है।

Friday, April 5, 2013

आदमी और चींटियाँ!



मेरे दादा जी, 

सवेरे चींटियों को,


आटा खिलाने जाते थे!

मेरे पिता जी

जब सवेरे बाहर जाते थे,


तो चींटिंयाँ, 


पैरों से न दब जायें


इस का ख्याल रखते थे,



मैं जब walk करता हूँ,


तो चीटियाँ


दिखती ही नहीं!



मेरा बेटा सवेरे

उठता ही नहीं,




पता नहीं क्या हो गया है?



इंसान,


चीटिंयों,


नज़र

और समय को!


Saturday, March 30, 2013

नींद की गठरी!

दोस्ती का देखने को,अब कौन सा मंज़र मिले,
फिर कलेजा चाक हो,या पीठ में खंजर मिले!


मेरी बरबादी की खातिर,दुश्मनी कम पड गई,
दिल में यारों को बसाया,उसके बस खंडहर मिले!


मैंने समझा था गुलों की सेज,तुरबत को मगर,
कब्र में जा कर भी बस,बदनामी के नश्तर मिले।


लोग लेकर चल पडे थे,सामाँ मसर्रत के सभी,
नींद की गठरी नहीं थी,खाली उन्हे बिस्तर मिले।

Tuesday, March 26, 2013

हैली होप्पी!



होली सब को खुशियों के रंग में सराबो कर दे!
Happy
Holi

Friday, March 15, 2013

ख्वाहिशें


ख्वाब पलकों के पीछे से चुभने लगे,
मेरा दिलबर मुझे रू-ब-रू चाहिये!


अँधेरा पुतलियों तक  पहुँचने लगा,
नूर तेरा मुझे अब चार सू चाहिये!



फ़ूल कागज़ के हैं ये महकते  नहीं,

गेसुओं की तेरे मुझको वो बू चाहिये!


आँख से जो गिरा अश्क है बेअसर,
जो लफ़्ज़ों मे हो वो लहू चाहिये!

Sunday, March 10, 2013

अफ़साना-ए-वफ़ा


कभी करना न भरोसा,

दिल की लन्तरानी पे

ये वो सराब हैं,

जो सरे सहरा ,

तेरी तिश्‍नगी को

धूप के हवाले करके,

तुझे आँसुओं की शबनम के सहारे छोड जायेगा,

औ दर्द तेरा

सबब बन जायेगा,

कहकहों का,

ज़माना सिर्फ़ तेरी नाकामयाब मोहब्बतों को

कहानियों में सुनायेगा !

ऐ दिल-ए- नादाँ,

सम्भल,


इश्क कभी वफ़ा वालों को, मिला है अब तक?


तेरा अफ़साना भी
माज़ी के वर्कॊं में दबाया जायेगा.

Saturday, March 9, 2013

खता किसकी!



मुझे बस इतना बताते जाते,
क्यूँ मुस्कुराते थे,तुम आते जाते!

शब-ए-इंतेजार मुख्तसर न हूई,
दम मगर जाता रहा तेरे आते आते।

तिश्‍नगी लब पे मकीं हो गई,
तेरी जुल्फों की घटा छाते छाते।

दर-ए-दुश्मन था,और मयखाना
गम के मारे बता किधर जाते?

तेरा घर मेरी गली के मोड पे था, रास्ते भला कैसे जुदा हो पाते?