Thursday, December 31, 2009

नया साल! सच में!



ज़िन्दगी का नया सिलसिला कीजिये,
भूल कर रंज़-ओ-गम मुस्कुरा दीजिये.

लोग अच्छे बुरे हर तरीके के हैं,
खोल कर दिल न सबसे मिला कीजिये.

तआरुफ़-ओ-तकरार करने से है,
ये करा कीजिये, वो न करा कीजिये.

शेर कह्ता हूं फ़िर एक नये रंग का
मुझको यादों का नश्तर चुभा दीजिये.

साल आने को है, साल जाने को है,
खास मौका है इसका मज़ा लीजिये.



Friday, December 11, 2009

दर्द का पता!



कल रात मेरी जीवन साथी संजीदा हो गईं,
मेरी कविताएं पढते हुये,


उसने पूछा,


क्या सच में! 


आप दर्द को इतनी शिद्द्त से महसूस करते हैं? 
या सिर्फ़ फ़लसफ़े के लिये मुद्दे चुन लेतें हैं!  


दर्द की झलक जो आपकी बातों में है,
वो आई कहां से?


मैने भी खूबसूरती से टालते हुये कहा,


दर्द खजाने हैं,इन्हें छुपा कर रखता हूं,
कभी दिल में,कभी दिल की गहराईओं में


खजानों का पता गर सब को बताता,
तो अब तक कब का लुट गया होता!


मेरे किसी दोस्त ने कभी बहुत ही सही कहा था!


’ये फ़कीरी लाख नियामत है, संभाल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगें ज़माने वाले!’          

Tuesday, December 8, 2009

कोपन्हेगन के संदर्भ में!

मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.


जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.


नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.


मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.


पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!


मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.


अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.


नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.


आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?


कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.


कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.


शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.


और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?




Wednesday, December 2, 2009

तीरगी का सच!

Little late for anniversary of 26/11 notwithstanding रचना आप के सामने hai :

इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
 मौला तू ,रास्ता दिखा अपने ज़माल से.


मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.


चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से.


लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से. 


और ये दो शेर ज़रा मुक़्तलिफ रंग के:



ऐसा नहीं के मुझको तेरी याद ही ना हो,
 पर बेरूख़ी सी होती है,अब तेरे ख़याल से.


दो अश्क़ उसके पोंछ के क्या हासिल हुया मुझे?
खुश्बू नही गयी है,अब तक़ रूमाल से.





Wednesday, November 25, 2009

आम ऒ खास का सच!

मेरा ये विश्वास के मैं एक आम आदमी हूं,
अब गहरे तक घर कर गया है,
ऐसा नहीं के पहले मैं ये नहीं जानता था,

पर जब तब खास बनने की फ़िराक में,
या यूं कहिये सनक में रह्ता था,

यह  कोई आर्कमिडीज़ का सिधांत नही है,
कि पानी के टब में बैठे और मिल गया!

मैने सतत प्रयास से ये जाना है कि,
किसी आदमी के लिये थोडा थोडा सा,
"आम आदमी" बने रहना,
नितांत ज़रूरी है!

क्यों कि खास बनने की अभिलाषा और प्रयास में,
’आदमी ’ का ’आदमी’ रह जाना भी
कभी कभी मुश्किल हो जाता है,
आप नहीं मानते?

तो ज़रा सोच कर बतायें!
’कसाब’,’कोडा’,’अम्बानी’,’ओसामा’,..........
’हिटलर’ .......... .........  ........
..... ......
आदि आदि,में कुछ समान न भी हो

तो भी,

ये आम आदमी तो नहीं ही कहलायेंगे,
आप चाहे इन्हे खास कहें न कहें!

पर!

ये सभी, कुछ न कुछ गवां ज़रुर चुके हैं ,

कोई मानवता,
कोई सामाजिकता,
कोई प्रेम,
कोई सरलता,
कोई कोई तो पूरी की पूरी इंसानियत!



और ये भटकाव शुरू होता है,
कुछ खास कर गुज़रने के "अनियन्त्रित" प्रयास से,
और ऐसे प्रयास कब नियन्त्रण के बाहर
हो जाते हैं पता नहीं चलता!

इनमें से कुछ की achivement लिस्ट भी
खासी लम्बी या impressive हो सकती है,
पर चश्मा ज़रा इन्सानियत का लगा कर देखिये तो सही,
मेरी बात में त्तर्क नज़र आयेगा!


Sunday, November 15, 2009

बेवफ़ाई का सच!





कल मुझे इक खबर ने दुखी कर दिया!


मेरे  दोस्त का तलाक हो गया!


आम बात(खबर) है ये आज कल,


पर मेरे दुखी होने की वजह थी,


दोनों ’तलाक शुदा’ व्यक्ति मेरे दोस्त रहे थे!


एक (उनकी) शादी से पहले और एक शादी के बाद! 




हांलाकि मैं तलाक की वजह नहीं था!




पर अफ़सोस कि बात ये के


काश उन दोनों मे से ,


कोई एक तो ऐसा होता,




जो मोहब्बत की कद्र कभी तो समझता!


Thursday, November 12, 2009

तन्हाई का सच!



कल रात सवा ग्यारह बजे,
मैं अचानक तन्हा हो गया!

एक दम तन्हा!  


ऐसा नहीं के इस से पहले,
मुझे कभी मेरी तन्हाई का अहसास नहीं था!


पर कल रात मैने एक गलती की!


अपने Mobile की phone book को  browse  करने लगा!
दिल में आया कि देखूं कौन कौन वो लोग हैं,

जिन्हें गर अभी  call  करूं तो,
बिन अलसाये,बिन गरियाये (दिल में)
मेरी call लेगें (और खुश होगें!)

सच कह्ता हूं!
मैने इस से ज्यादा तन्हाई कभी मह्सूस नहीं की!

क्यों के एक भी Contact  ऐसा नहीं था जिसे,
मैं बेधडक call कर सकूं,


एक Thursday evening को!
(कल एक  working day है!)


सिर्फ़ ये कहने के लिये!


बहुत दिन हुये ’तुम से बात नहीं हुई’

और वो खुश हो के कहे,




"अच्छा लगा के तुमने याद किया!"
(झूंठ ही सही!!!!)


"सच में" कितना तन्हा हूं मैं!


और आप?  









Thursday, November 5, 2009

दर्द का सच!



छुपा लाख तू जो गुजरी है हम दोनो में,
तेरा चेहरा तेरे हर सच का पता देता है.


पाक पलकों को तेरी,मैंने तो छूआ भी नहीं,
कैसा दिलबर है,तू जगने की सज़ा देता है.


मेरी कोशिश है,मैं आज के साथ जी पाऊं,
मेरा माज़ी है के, मेरा दर्द जगा देता है.


ये मोहब्ब्त है, इसे खेल न समझो यारों
दर्द इश्क का बढने पे मज़ा देता है.


दर्द देता है मज़ा,कभी अश्क मज़ा देता है,
ये तो इन्सान है,जो अच्छों को भुला देता है.



Wednesday, October 28, 2009

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,


गर नही!तो,


’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’

Friday, October 23, 2009

सच बे उन्वान!



पलकें  नम थी मेरी,  
घास पे शबनम की तरह,
तब्बसुम लब पे सजा था,
किसी मरियम की तरह.

वो मुझे छोड गया ,
संगे राह समझ. 
मै उसके साथ चला था,
हरदम, हमकदम की तरह.

वफ़ा मेरी कभी 
रास न आई उसको,
वो ज़ुल्म करता रहा, 
मुझ पे बेरहम की तरह.

फ़रिस्ता मुझको समझ के ,
वो आज़माता रहा,
मैं तो कमज़ोर सा इंसान 
था आदम की तरह.

ख्वाब जो देके गया ,
वो बहुत हंसी है मगर,
तमाम उम्र कटी मेरी 
शबे गम की तरह.



Thursday, October 15, 2009

"झूंठ" सच में!

उसकी तस्वीर के शीशे से 
गर्द को साफ़ किया मैने,
उंगली को ज़ुबान से नम कर के,
पर ’वो’ नहीं बोली!

मेरी आंखे नम थीं,
पर ’वो’ नहीं बोली,

शायद वो बोलती,
गर वो तस्वीर न होती,

या शायद
गर वो मेरी तरह
गम ज़दा होती
इश्क में!

वो नहीं थी!
न तस्वीर,
न तस्सवुर,

एक अहसास था,

जिसे मैने ज़िन्दगी से भी ज़्यादा जीने की कोशिश की थी!

टूट गया!

क्यो कि
ख्वाब गर जो न टूटे,
तो कहां जायेंगे?
जिन के दिल टूटे हैं
वो खुद को भला क्या समझायेंगे!

शायद ये के:

"टूट जायेंगे तो किरचों के सिवा क्या देगें!
ख्वाब शीशे के हैं ज़ख्मों के सिवा क्या देंगें,"

Wednesday, October 14, 2009

बस कह दिया!

चमन को हम साजाये बैठे हैं,
जान की बाज़ी लगाये बैठे हैं.

तुम को मालूम ही नहीं शायद,
दुश्मन नज़रे गडाये बैठे हैं.

सलवटें बिस्तरों पे रहे कायम,
नींदे तो हम गवांये बैठें हैं

फ़ूल लाये हो तो गैर को दे दो,
हम तो दामन जलाये बैठे हैं.

मयकदे जाते तो गुनाह भी था,
बिन पिये सुधबुध गवांये बैठे हैं.

सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.


Saturday, October 10, 2009

मानव योनि!

चौरासी लाख योनिओं में,
शायद ’प्रेत’योनि भी एक है!
या शायद नहीं है?

पता नही!

पर मैं ये जानता हूं कि,
हर देह धारी मनुष्य
प्रेत योनी का सुख उठा सकता है,

अरे आप तो हैरान हो गये,
प्रेत योनि और सुख?
जी हां!

दर असल ये समझना ज़रूरी है कि,
मानव योनि के कौन कौन से कष्ट है,
जो प्रेत योनि में नहीं होते.

सम्वेदना,लगाव,
स्नेह,विरह,कामना,
ईर्ष्या,स्पर्धा,लालसा,
भय,आवेग,करुणा,
आकांछा,और हां

"सब कुछ सच सच जान लेने की ख्वाहिश"!

ये कुछ ऐसी अजीबो गरीब भावनायें हैं,
जो इन्सान के कष्ट का कारण होती है,

प्रेत योनि में ये दुख कहां,
तभी तो मानव देह धारी हो कर भी,
प्रेत योनि की प्रसंशा करते हुये,
उसी की प्राप्ति की ओर अग्रसर हूं!



Monday, September 21, 2009

दरख्त का सच!

मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.

जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.

नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.

मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.

पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!

मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.

अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.

नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.

आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?

कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.

कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.

शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.

और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?

Friday, August 28, 2009

सच है ना?


आईना मुझको झुठलाने लगा है ,
अक्स अब धुंधला नज़र आने लगा है.

वख्त अब थोडा सा ही बचा है,
सूरज पश्चिम की तरफ़ जाने लगा है.

दुश्मनो को आओ अब हम माफ़ कर दें,
दोस्त मेरा, मेरे घर आने लगा है.

क्यों भला शैतान पाये बद्दुयाएं,
फ़रिस्ता भी तो साज़िशें रचाने लगा है.


क्यों भला हम रिन्द को तोहमत लगाये,

साकी भी तो जाम छ्लकाने लगा है.


बाढ सूखे से तुम्हें क्या लेना देना,

SENSEX तो अब ऊपर जाने लगा है.

*********************************************************************************

"सच में" के सुधी पाठकों और अपने चाहने वालों से कुछ समय के लिये ,इस माध्यम (Blog 'sachmein') पर मुखातिब नहीं हो पाऊंगा.आशा है आप सब की दुआएं जल्द ही मुझे वापस आने के लिये हालात बना देंगी.तब तक के लिये,take care & Happy Bloging!

_Ktheleo


Tuesday, August 25, 2009

फ़िर से पढे 'ताल्लुकात का सच'!

मुझसे कह्ते तो सही ,जो रूठना था,
मुझे भी , झंझटों से छूटना था.

तमाम अक्स धुन्धले से नज़र आने लगे थे,
आईना था पुराना, टूटना था.

बात सीधी थी, मगर कह्ता मै कैसे,
कहता या न कहता, दिल तो टूटना था.

मैं लाया फूल ,तुम नाराज़ ही थे,
मैं लाता चांद, तुम्हें तो रूठना था.

याद तुमको अगर आती भी मेरी,
था दरिया का किनारा , छूटना था.

Wednesday, August 19, 2009

वफ़ा की दुआ!

ख्याब शीशे के हैं, किर्चों के सिवा क्या देगें,
टूट जायेंगें तो, ज़ख्मों के सिवा क्या देगें

ये तो अपने ही मसलो मे उलझें है अभी
खुद दर्द के मारे है, वो मुझको दुआ क्या देगें.

सारे ज़माने में,मशहूर है बेवफ़ाई उनकी,
संगदिल लोग है,ये हम को वफ़ा क्या देगें .

Tuesday, August 11, 2009

इश्क का सच!

इन्तेज़ार तेरा किया,मैने ता उम्र मगर,
मौत पे कब किसी का इख्तियार होता है!

तुम मिले न मुझे,न मैं ही तेरा हो पाया,
सच मोहब्बत का है,ऐसे भी प्यार होता है.

किसे फ़ुरसत है मुझे कौन अब तसल्ली दे,
इश्क के बर्बादों का कोई गमगुसार होता है?

Monday, August 3, 2009

मौसम

लीजिये मौसम सुहाने आ गये,
हुस्न वालो के ज़माने आ गये

बादलों का पानी कहीं न कम पडे,
हम अपने आंसू मिलाने आ गये.

मौत भी मेरी,फ़साना बन गयी,
दुश्मन-ऐ-जां , आंसू बहाने आ गये.

चूक कैसे जाते सारे दोस्त मेरे,
वो भी दिल मेरा दुखाने आ गये.

गुलों को देख कर उकता गये थे,
खार दामन को सज़ाने आ गये.

यार के दामन से जी जब भर गया,
गैर क्यूं अपना बनाने आ गये?

दाद दी गज़लों पे मेरी उसने जब,
यूं लगा गुज़रे ज़माने आ गये.

Monday, July 27, 2009

गर्द-ए-सफ़र-ए- इश्क!

गर्द-ए-सफ़र-ए-इश्क वो लाया है,
खाक कहता है,तू,उसे जो सरमाया है.

क्यों कर सजे तब्बसुम अब लब पर तेरे,
संगदिल से तू ने क्यूं कर दिल लगाया है.

कोशिश भी न करना मसर्रत-ए-दीदार की,
कभी था तेरा,वो बुते हुश्न अब पराया है.

ज़िक्र-ए-वफ़ा भी मेरा क्यूं गुनाह हो गया,
उसकी बेवाफ़ाई को,मैने जां दे के भी निभाया है.

उफ़्फ़क पे जाके शायद, मिल जाते,
मैं अगर आसमां, और तू ज़मीं होता

इस दुनियां में सब मुसाफ़िर हैं,
कोई मुस्तकिल मकीं नही होता
.


सौ बार आईना देख आया,
फ़िर भी क्यूं खुद पर यकीं नही होता.


दिल के टुकडे बहुत हुये होगें,
यूं ही कोई गमनशीं नहीं होता!

Friday, July 24, 2009

अनामिका

अनुचरी,अर्धागिंनी,भार्या
कोई भी नाम मैने तो नहीं सुझाया,

न ही,स्वयं के लिये चुने मैने सम्बोधन
जैसे कि प्राणनाथ,स्वामी आदि,

फ़िर कब हम दोनो बन्ध गये
इन शब्दों की ज़न्जीरों से.

क्या इन के परे भी है कोई
ऐसा सीधा और सरल सा,
रिश्ता जो कोमल तो हो,
पर मज़बूत इतना,

जैसे पेड से लिपटी बेल,
जैसे तिल के भीतर तेल
जैसे पुल से गुज़रती रेल,
’आइस-पाइस’ का खेल,

चलो क्यो बांधें इसे,
उपमाओं में
मैं और तुम क्या काफ़ी नहीं,
इस जीवन को परिभाषित करने के लिये?


Wednesday, July 22, 2009

रास्तों का सच!


एक शमा की सब वफाएं,जब हवा से हो गयी.
बे चरांगा रास्तों का लुत्फ़ ही जाता रहा.


तुम अंधेरे की तरफ कुछ इस क़दर बढ़ते गये,
रौशनी मैं देखने का हुनर भी जाता रहा.


(दिल करता है कि इस शेर को कुछ ऐसे लिखूं:)

तुम सितारों की चमक में,कुछ इस क़दर मसरूफ़ थे,
के रोशनी में देखने का हुनर ही जाता रहा.


जितने मेरे हमसफ़र थे अपनी मंज़िल को गये,
मैं था, सूनी राह थी, और एक सन्नाटा रहा .


हाल-ए-मरीज़े इश्क़ का मैं क्या करूँ तुमसे बयाँ,
हर दवा का,हर दुआ का असर ही जाता रहा.

********************************************************************
लुत्फ़:Fun

हुनर:The art/ Capability of..

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Saturday, July 18, 2009

किरदार का सच!( फ़िर से)


मेरी तकरीबन हर रचना का,
एक "किरदार" है,
वो बहुत ही असरदार है,
पर इतना बेपरवाह ,
कि जानता तक नहीं,
कि 'साहित्य' लिखा जा रहा है,

'उस पर'

मेरे लिये भी अच्छा है,
क्यों कि जिस दिन,
वो जान गया कि,
मैं लिख देता हूं,

'उस पर'

मेरी रचनाओं में सिर्फ़
शब्द ही रह जायेगें।

क्यों कि सारे भाव तो ,
'वो' अपने साथ लेकर जायेगा ना!

शर्माकर?

या शायद,

घबराकर!!!!


Saturday, July 11, 2009

जाने क्या?


तमाम शहर रौशन हो, ये नही होगा,
शमा जले अन्धेरे में ये मज़बूरी है.

दर्द मज़लूम का न गर परेशान करे,
ज़िन्दगी इंसान की अधूरी है.

ज़रूरी काम छोड के इबादत की?
समझ लो खुदा से अभी दूरी है.

सच कडवा लगे तो मैं क्या करूं,
इसको कहना बडा ज़रूरी है.

फ़ौर your eyes Only!













एक e-mail से मिला चित्र!
आप सोच लो बच्चे और जानवर तक जान गये है ,ईश्वर सब से बडी सत्ता है.
पर चंद इन्सान जो ये नही मानते कब समझेंगे?


Friday, July 10, 2009

मेरा सच


मै अपने आप से कभी घबराता नहीं,
पर खाम्खां सरे आईना यूंहीं जाता नहीं.

चापलूसी,बेईमानी,और दगा,
ऐसा कोई फ़न मुझे आता नहीं.

बात हो सकता है के ये कडवी लगे,
क्या करूं मैं,झूठं बोला जाता नहीं.

दिल तो करता है तुम्हें सम्मान दूं,
मेरी फ़ितरत को मगर भाता नहीं.

कैसे बैठूं मैं तुम्हारी महफ़िल में,
जब तुम से सच मेरा सहा जाता नहीं.

मत दिलाओ दिल को झूठीं उम्मीदें,
इश्क वालों से अब ज़िया जाता नहीं.

जा मरूं मैं दर पे जाके गैर के,
राय अच्छी है,पर किया जाता नहीं.



Thursday, July 9, 2009

बचपन की बातें!


मेरे बचपन में,
मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने,
मुझसे पूछा,
क्या मै सुन्दर हूं ?
मैने कहा हां! मगर क्यों?
उसने कहा । यूं ही!

मैनें कहा, ओके.

मेरे बचपन में,
मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने,
मुझसे पूछा,
क्या मैं ताकतवर हूं?
मैने कहा हां! आखिर क्यों?
उसने कहा यूं ही!

मैनें कहा। ऒके.

अभी हाल में एक दिन ,

मेरे बचपन के उसी सबसे अच्छे दोस्त ने, मुझसे पूछा,
क्या अब मैं ,तुम से ज्यादा 'सुन्दर,अमीर और ताकतवर हूं?'

मैं चुप रहा!

मेरे दोस्त ने कहा ! ऒके!!!!!!!!!



Tuesday, July 7, 2009

अरमान



रूठना वो तेरा ऐसे,
कहीं कुछ टूट गया हो जै
से.



बहुत बेरंग हैं आज शाम के रंग,
इंद्रधनुष टूट गया हो जैसे.


वो मेरे अरमान तमाम बिखरे हुए,
शीशा कोई छूट गया हो जैसे.


बात बहुत सीधी थी और कह भी दी
तू मगर भूल गया हो जैसे.


कहते कहते यूँ तेरा रुक जाना,
साजिंदा रूठ गया हो जैसे.