मैं और करता भी क्या,
वफ़ा के सिवा!
मुझको मिलता भी क्या,
दगा के सिवा!
बस्तियाँ जल गई होंगी,
बचा क्या धुआँ के सिवा!
अब गुनाह कौन गिने,
मिले क्या बद्दुआ के सिवा!
कहाँ पनाह मिले,
बुज़ुर्ग की दुआ के सिवा!
दिल के लुटने का सबब,
और क्या निगाह के सिवा!
ज़ूंनून-ए-तलाश-ए-खुदा,
कुछ नही इश्क-ए-बेपनाह के सिवा!
वाह....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर........
लाजवाब शेर.
अनु
अश्क को पानी न समझ मेरे दोस्त,
ReplyDeleteइस सैलाब से खुदाई डरती है
मेरे अश्कों से डर गया होगा,
ReplyDeleteवो चाँदनी बन के बिखर गया होगा!
इस सिवा के सिवा दुनिया में रखा क्या है..
ReplyDeleteवाह ... बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत खूब ... मुझे मिलता भी क्या ...दगा के सिवा ..
ReplyDeleteसच से रूबरू होती रचना ...
शुक्रिया दिगम्बर भाई आपने मेरे ख्याल से इत्तेफ़ाक रखा!
Deletevehad sambedansheel rachana,"kabhi khud aayeene se rubru hokar dehko,
ReplyDeletesuch,khud b khud dil se utar chehare par najar aa jayga"
आपका शुक्रिया!
Deletekyaa khoob kaha aapne .
ReplyDeleteआपने रचना पसंद की आपका धन्यवाद!
Deleteइस सुन्दरतम रचना के लिए बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteकृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर पधारें , अपनी प्रतिक्रिया दें , आभारी होऊंगा .
वाह बहुत सुन्दर लगी ये रचना बेहतरीन भाव पहली बार आई हूँ आपके ब्लॉग पर आना सार्थक हुआ मिलते रहेंगे शुभकामनाएं
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत स्वागत है!
Deleteबहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...
ReplyDeleteबेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!
शुभकामनायें.