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Sunday, November 13, 2011

कैक्टस


मैने कह दिया था न,

कि कैक्टस कभी भी,

चुभ सकते हैं,

फ़ूल भी कई मौसम गुज़र जाने बाद शायद ही आते हैं,

कैक्टस पर,

हाँ ये ज़रूर है,
जो लोग,

कैक्टस उगाते हैं

घरों में

वो होते हैं ,

विरले,
डिफ़रैंट, हट के , अलग से,
औफ़ बीट

कैक्टस की तरह ही!


दुख पाकर भी क्या कोई,
खुश हो सकता है?

कैक्टस की तरह।


Wednesday, November 9, 2011

गंगा आरती!



हरि पुत्री बन कर तू उतरी
माँ गंगा कहलाई,
पाप नाशनी,जीवन दायनी
जै हो गंगा माई!

भागीरथी,अलकनंदा,हैं 
नाम तुम्हारे प्यारे,
हरिद्वार में तेरे तट पर
खुलते हरि के द्वारे!

निर्मल जल 
अमृत सा तेरा,
देह प्राण को पाले
तेरी जलधारा छूते ही
टूटें सर्वपाप के ताले!

माँ गंगा तू इतनी निर्मल
जैसे प्रभु का दर्शन,
पोषक जल तेरा नित सींचे 
भारत माँ का आंगन!

तू ही जीवन देती अनाज में 
खेतों को जल देकर,
तू ही आत्मा को उबारती
देह जला कर तट पर!

पर मानव अब 
नहीं जानता,खुद से ही क्यों हारा,
तेरे अमृत जैसे जल को भी
कर बैठा विषधारा!

माँ का बूढा हो जाना,
हर बालक को खलता है,
प्रिय नहीं है,सत्य मगर है,
जीवन यूंही चलता है!

हमने तेरे आँचल में
क्या क्या नहीं गिराया,
"गंगा,बहती हो क्यूं?"भी पूछा,
खुद का दोष न पाया!

डर जाता हूं सिर्फ़ सोच कर,
क्या वो दिन भी आयेगा,
गंगाजल मानव बस जब,
माँ की आँखो में ही पायेगा!