ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

Monday, December 31, 2012

साल नया है!

मान लूँगा,
साल नया है,

अगर कल का अखबार शर्मिदा न करे! तो!

मान लूँगा,
अगर 01 जनवरी 2013 की शाम को कोई भी हिन्दुस्तानी भूखा न सोये!

मान लूँगा,
तुम सब अगर कसम खाओ के कम से कम आज कोई घूस नहीं खायेगा!

मान लूँगा,
अगर तुम मान लोगे कि ,
सिर्फ़ अपने अतीत में रहने वाली कौमें,कायम नहीं रह पातीं!

मैं कैसे मान लूँ साल नया है?

क्यों कि न नौ मन तेल होगा, और न राधा नाचेगी!

नाचे कैसे?

कैसे?
नाचे तो!
पर,
राधा को जीने दोगे तब न?

Tuesday, November 13, 2012

मशालें!

जिस्मों की ये मजबूरियाँ,
रूहों के तकाज़े,
इंसान लिये फिरते हैं,
खुद अपने ज़नाजे।




आँखो मे अँधेरे हैं,
हाथों में मशालें,
अँधों से है उम्मीद 
के वो पढ लें रिसाले!






हमको नहीं है इल्म
कैसे पार लगें हम,
लहरों की तरफ़ देखें,
या कश्ती को संभालें!








Saturday, October 27, 2012

चाँद और तुम!

अभी कुछ देर पहले.

रात के पिछ्ले प्रहर
चाँद उतर आया था,


मेरे सूने दलान में,

यूँ ही,
मैंने तुम्हारा नाम लेकर 


पुकार था,

उसको ,

अच्छा लगा! उसने कहा,

इस नये नाम से पुकारा जाना,

तुम्हें कोई एतराज तो नहीं,
गर मैं रोज़ उस से बातें कर लिया करूँ?
और हाँ उसे पुकारूं तुम्हारे नाम से,
उसे अच्छा लगा था न!
तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा न?


गर चाँद को मैं पुकारूं तुम्हारे नाम से!

Tuesday, August 28, 2012

मुगाल्ता!



वो मेरा नाम सुन के जल गया होगा,
किसी महफ़िल में मेरा ज़िक्र चल गया होगा!

उसकी बातों पे एतबार मत करना,
सच बात जान के बदल गया होगा!

तुमने नकाब उठाया ही क्यों,
दिल नादान था मचल गया होगा!

मौसम बारिशो का अभी बाकी है,
रुख हवाओं का बदल गया होगा!

रास्ते सारे गुम हो गये होगें,
वो फ़िर भी घर से निकल गया होगा!

Tuesday, July 31, 2012

इश्क-ए-बेपनाह!


मैं और करता भी क्या,
वफ़ा के सिवा!

मुझको मिलता भी क्या,
दगा के सिवा!

बस्तियाँ जल गई होंगी,
बचा क्या धुआँ के सिवा!

अब गुनाह कौन गिने,
मिले क्या बद्दुआ के सिवा!

कहाँ पनाह मिले,
बुज़ुर्ग की दुआ के सिवा!

दिल के लुटने का सबब,
और क्या निगाह के सिवा!

ज़ूंनून-ए-तलाश-ए-खुदा,
कुछ नही इश्क-ए-बेपनाह के सिवा!


Wednesday, July 4, 2012

मैं और मेरा खुदा!




घुमड रहा है,
गुबार बन के कहीं,
अगर तू सच है तो,
ज़ुबाँ पे आता क्यों नही?

"ईश्वरीय कण"

सच अगर है तो,
तो खुद को साबित कर,
झूंठ है तो,
बिखर जाता क्यों नहीं?

आईना है,तो,
मेरी शक्ल दिखा,
तसवीर है तो,
मुस्कुराता क्यों नहीं?




मेरा दिल है,
तो मेरी धडकन बन,
अश्क है,
तो बह जाता क्यों नहीं?

ख्याल है तो  कोई राग बन,
दर्द है तो फ़िर रुलाता,
क्यों नही?

बन्दा है तो,
कोई उम्मीद मत कर,
खुदा है तो,
नज़र आता क्यों नहीं?


बात तेरे और मेरे बीच की है,
चुप क्यों बैठा है?
बताता क्यों नहीं? 

Tuesday, June 26, 2012

आज का अर्थशास्त्र!


झूँठ बोलें,सच छुपायें,
आओ चलो पैसे कमायें!

दिल को तोडें,दर्द दें,
सच से हम नज़रें बचायें

आऒ चलो पैसे कमायें!

भूखे नंगो को चलो,
सपने दिखायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

मौत बाँटें,औरतों के
जिस्म टीवी पर दिखायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

लडकियों को कोख में मारे,
गरीबो को सतायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

किसने देखी है कयामत,
आये न आये,
मिल के धरती को चलो
जन्नत बनायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

देश उसकी अस्मिता,
सुरक्षा को फ़िर देख लेंगें
मौका सुनहरी है,
अभी इसको भुनायें,

आऒ चलो पैसे कमायें!

खुद निरक्षर,
मगर ज्ञान छाटें,
डिग्रियाँ बाँटें, बच्चों को भरमायें

आओ चलो पैसे कमायें


Tuesday, May 29, 2012

संवेदनहीन

अतृप्त आत्मा ,

भूखे जिस्म और उनकीं ज़रूरतें तमाम,

मन बेकाबू,

और उसकी गति बे-लगाम,

अधूरा सत्य,

धुन्धले मंज़र सुबुह शाम,


क्या पता? कब और कैसे आये मुकम्मल सुकूं,

और रूह को आराम!

Sunday, April 22, 2012

निर्मल सच


अपनी नज़रों से जब जब मैं गिरता गया,
मेरा रुतबा ज़माने में बढता गया! 

मेरे अखलाक की ज़बरूत घटती गई,
पैसा मेरी तिजोरी में बढता गया!


मेरे होंठों से मुस्कान जाती रही,
मेरा एहतिराम महफ़िल में बढता गया!

सब सितारे मुझे मूहँ चिढाते रहे,
मैं सिम्त-ए-तारीकी बढता गया!


Friday, April 13, 2012

रंग-ए-महफ़िल



चोट खा कर मुस्कुराना चाहता हूँ,
क्या करूँ रिश्ते निभाना चाह्ता हूँ!


ये रंगत-ए- महफ़िल तो कुछ ता देर होगी,
मैं थक गया हूँ घर को जाना चाहता हूँ!

तुम मेरी यादों में अब हर्गिज़ न आना,
मैं भी तुम को भूल जाना चाहता हूँ!

चल पडा हूँ राह-ए-शहर-ए-आबाद को अब,
आदमी हूँ मैं भी इक घर बसाना चाह्ता हूँ!


बस करो अब और न तोहमत लगाओ,
मैं भी एक माज़ी सुहाना चाहता हूँ!

PS:
न जाने क्युँ जब कि आप सब पढने वलों ने इतनी तव्व्जों से पढा और सराहा है, दिल में आता कि, आखिरी से पहले वाला शेर कुछ ऐसे कहा जाये-


"चल पडा हूँ राह-ए-शहर-ए-आबाद को मैं ,
आशिक तो हूँ पर इक घर बसाना चाह्ता हूँ!"

Thursday, March 22, 2012

चेहरे!


चेहरे!

अजीब,
गरीब,
और हाँ, अजीबो गरीब!
मुरझाये,
कुम्हलाये,
हर्षाये,
घबराये,
शर्माये,
हसींन,
कमीन,
बेहतरीन,
नये,
पुराने
जाने,
पहचाने,
और हाँ ’कुछ कुछ’ जाने पहचाने,
अन्जाने,
बेगाने,
दीवाने
काले-गोरे,
और कुछ न काले न गोरे,
कुछ कि आँखों में डोरे,


कोरे,
छिछोरे,
बेचारे,
थके से,
डरे से,
अपने से,
सपने से,
मेरे,
तेरे,
न मेरे न तेरे,
आँखें तरेरे,


कुछ शाम,
कुछ सवेरे,


घिनौने,
खिलौने,
कुछ तो जैसे
गैईया के छौने,


चेहरे ही चेहरे!


पर कभी कभी,
मिल नही पाता,
अपना ही चेहेरा!
अक्सर भाग के जाता हूँ मैं,


कभी आईने के आगे,
और कभी नज़दीक वाले चौराहे पर!


हर जगह बस अक्श है,परछाईं है,
सिर्फ़  भीड है और तन्हाई है !



Thursday, February 23, 2012

सजा इंसान होने की !




मेरे तमाम गुनाह हैं,अब इन्साफ़ करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.

दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.

हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे, 
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.      

मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.

गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.



Friday, January 27, 2012

Please! इसे कोई न पढे! चुनाव सर पर हैं!


थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,


बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,


वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,


और था एक पत्थर भी,


वो भी रास्ते का,


सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,


जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,

वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,

बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!


बीन सुन कर 
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।

भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!



सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं, 
नितांत यर्थाथ में।

Monday, January 23, 2012

उसका सच! एक बार फ़िर!


मुझे लग रहा है,पिछले कई दिनों से ,
या शायद, कई सालों से,

कोई है, जो मेरे बारे में सोचता रहता है,

हर दम,

अगर ऐसा न होता ,
तो कौन है जो, मेरे गिलास को शाम होते ही,
शराब से भर देता है।

भगवान?

मगर, वो ना तो पीता है,
और ना पीने वालों को पसंद करता है ,
ऐसा लोग कह्ते हैं,

पर कोई तो है वो !


कौन है वो, जो,
प्रथम आलिगंन से होने वाली अनुभुति 
से मुझे अवगत करा गया था।

मेरे पिता ने तो कभी इस बारे में मुझसे बात ही नहीं की,

पर कोई तो है, वो!

कौन है वो ,जो 
मेरी रोटी के निवाले में,
ऐसा रस भर देता है,
कि दुनियां की कोई भी नियामत,
मुझे वो स्वाद नहीं दे सकती।
पर मैं तो रोटी बनाना जानता ही नही

कोई तो है ,वो!

कौन है वो ,जो,
उन तमाम फ़ूलों के रगं और गंध को ,
बदल देता है,
कोमल ,अहसासों और भावनाओं में।

मेरे माली को तो साहित्य क्या, ठीक से हिन्दी भी नहीं आती।

कोई तो है ,वो,

वो जो भी है,
मैं जानता हूं, कि,
एक दिन मैं ,
जा कर मिलु्गां उससे,
और वो ,हैरान हो कर पूछेगा,


क्या हम, पहले भी ,कभी मिलें हैं?