यूँ ही,
कल रात,
बेसाख्त: लगा ढूँडने
एक अच्छा इन्सान,
रात काफ़ी हो गई थी,
और थी थोडी थकान,
फ़िर भी
मन के फ़ितूर को
शान्त करना भी था
"ज़रूरी"
अब मेरी आदत कह लीजिये,
या यूँ ही!
दफ़्तन ’दस्तूरी’
मैंने कहा क्यूँ कहीं और जायें?
क्यों न अपने पहलू में ही गौर फ़र्मायें!
जा मिला मैं आईने से!
और पूछा ,
है भला कोई यहाँ!
मुझसे ’भला’?
एक आवाज़ कहीं दूर से,
आई या वहम के बाइस सुनाई दी!
"बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलया कोय
जब घट देखा आपना,
मुझ से बुरा न कोय"
कबीर साहब,
इतना ’सच’ किस काम का!
के जीना ही दुश्वार हो जाये!