यूँ ही,
कल रात,
बेसाख्त: लगा ढूँडने
एक अच्छा इन्सान,
रात काफ़ी हो गई थी,
और थी थोडी थकान,
फ़िर भी
मन के फ़ितूर को
शान्त करना भी था
"ज़रूरी"
अब मेरी आदत कह लीजिये,
या यूँ ही!
दफ़्तन ’दस्तूरी’
मैंने कहा क्यूँ कहीं और जायें?
क्यों न अपने पहलू में ही गौर फ़र्मायें!
जा मिला मैं आईने से!
और पूछा ,
है भला कोई यहाँ!
मुझसे ’भला’?
एक आवाज़ कहीं दूर से,
आई या वहम के बाइस सुनाई दी!
"बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलया कोय
जब घट देखा आपना,
मुझ से बुरा न कोय"
कबीर साहब,
इतना ’सच’ किस काम का!
के जीना ही दुश्वार हो जाये!
आपकी पोस्ट को आज के बुलेटिन चवन्नी की विदाई के दो साल .... ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ...आभार।
ReplyDeleteसम्मान के लिये आपका शुक्रिया! "सच में" के प्रति प्रेम बनायें रखें।
Delete’जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनंद’ कहने वाले कबीर साहब जीना दुश्वार करने वाला सच ही बयान करते रहे। फ़िर भी उनका जीना और हमारा जीना, बहुत फ़र्क है कुश भाई.
ReplyDeleteआपको और संत कबीर दोनों को नमन और साधुवाद! संजय भाई!
Deleteइतना सच काहे का ... सही सवाल किया है कबीर से ... पर इन्सान अपने आप से यही सवाल नहीं करता ... लाजवाब लिखा है ...
ReplyDeleteदिगम्बर जी आपका शुक्रिया!
Deleteसुन्दर रचना। आभार
ReplyDeleteचवन्नी की विदाई के दो साल।
हर्षवर्धन जी! आपका भी शुक्रिया और आभार!
Deleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार८ /१ /१३ को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है।
ReplyDeleteआपका शुक्रिया "सच में" को इस सम्मान के लिये राजेश कुमारी जी!
Deleteसही सवाल किया है
ReplyDeleteभावो को संजोये रचना......
ReplyDeleteसंजय जी, सुषमा जी,
ReplyDeleteआपका तह-ए-दिल से शुक्रिया!