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Sunday, February 8, 2009

"झूंठ के पावं"


वो देखो दौड़ के मंज़िल पे जा पहुँचा,
कौन कहता है के,'झूंठ के पावं' नही होते.

मैं चीख चीख के सब को बताता रह गया,
फिर ना कहना,'दीवारों के भी कान' होते हैं.

सारे हाक़िम लपक कर उसके पावं छू आए,
तब मैं जान गया,'क़ानून के हाथ' लंबे हैं.




3 comments:

  1. अजीजों की कीमत इशारे में है
    चुकाना मजबूरी या किस्मत कहो

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  2. bahut hi shaandaar.

    continue and keep making ppl's day. :)

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  3. Bade Bhaiya
    main aapka maal copy kar raha hoon
    aitraaj ho to batana, hata dunga :)

    Thanks

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