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Friday, September 17, 2010

हर मन की"अनकही"!

मैं फ़ंस के रह गया हूं!
अपने
जिस्म,
ज़मीर,
ज़ेहन,
और
आत्मा 
की जिद्दोजहद में,

जिस्म की ज़रूरतें,
बिना ज़ेहन के इस्तेमाल,
और ज़मीर के कत्ल के,
पूरी होतीं नज़र नहीं आती!

ज़ेहन के इस्तेमाल,
का नतीज़ा,
अक्सर आत्मा पर बोझ 
का कारण बनता लगता है!

और ज़मीर है कि,
किसी बाजारू चीज!, की तरह,
हर दम बिकने को तैयार! 

पर इस कशमकश ने,
कम से कम 
मुझे,
एक तोहफ़ा तो दिया ही है!

एक पूरे मुकम्मल "इंसान"की तलाश का सुख!


मैं जानता हूं,
एक दिन,
खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!

वैसे ही!
जैसे उस दिन,
बाबा मुझे घर ले आये थे,
जब मैं गुम गया था मेले में! 

8 comments:

  1. अच्छी पंक्तिया है ..

    इसे भी पढ़े :-
    (आप क्या चाहते है - गोल्ड मेडल या ज्ञान ? )
    http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_16.html

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  2. bahut dino baad idhar ki taraf nikla hoon....
    thoda bzy ho gaya tha.....
    bahut hi achhi panktiyaan.....

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  3. जिस्म, ज़ेहन और ज़मीर का इस्तेमाल करते हुये बारामूडा ट्राईऐंगल रच दिया है आपने।
    खुद को ढूंढ लेने की जद्दोजहद रंग लायेगी, पक्का।

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  4. bohot hi khubsurat rachna..... prathna karungi ki aapki is kashmakash ka samathan jaldi ho jaye..... :)

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  5. ज़मीर ... ज़हन ... आत्मा ... विरोधाभास है इन शब्दों में .... जब भी काम करते हैं साथ नही चल सकते ....
    बहुत ही शशक्त रचना है .... लाजवाब ...

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  6. "कविता" ब्लोग पर आप सब ने फ़रमाया:-

    शारदा अरोरा said...
    कशमकश को बेहतरीन शब्दों में उतारा है , एक सच्चा कलाकार गम से नहीं वरना जीवन से ग़मों की बनिस्पत समझौता करता है ।

    September 21, 2010 12:51 AM


    संजय भास्कर said...
    मैं जानता हूं,
    एक दिन,
    खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!

    ...हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ ! अति सुन्दर !

    September 21, 2010 1:00 AM


    संजय भास्कर said...
    सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

    September 21, 2010 1:01 AM


    शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...
    ...ज़मीर है कि...किसी बाजारू चीज की तरह,
    हरदम बिकने को तैयार!
    ......
    बाबा मुझे घर ले आये थे,
    जब मैं गुम गया था मेले में!
    वाह
    इन पंक्तियों में जैसे पूरी कविता का सार समेट दिया गया है...
    बधाई.

    September 21, 2010 3:56 AM


    दिगम्बर नासवा said...
    जेहन ज़मीर और आत्मा की कशमकश में लिखी लाजवाब .. शशक्त रचना है ....

    September 21, 2010 4:36 AM


    AlbelaKhatri.com said...
    वाह वाह

    सन्न कर दिया आपकी कविता के मर्म ने......

    अत्यन्त उत्तम पोस्ट !


    September 21, 2010 7:50 AM


    shama said...
    Aisi behtareen rachana ke liye mujhe alfaaz soojh nahi rahe! Jism ,jahan aur zameer kee kashmkash shayad hee kabhi itni khoobsoortee se bayan hui hogi!

    September 21, 2010 9:26 AM

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  7. wah kya baat hai ...yakinan
    har man ki unkahii
    jo aapne kah dii

    bandhai ki haqdaar rachna ..swikar karen

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