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Thursday, March 22, 2012

चेहरे!


चेहरे!

अजीब,
गरीब,
और हाँ, अजीबो गरीब!
मुरझाये,
कुम्हलाये,
हर्षाये,
घबराये,
शर्माये,
हसींन,
कमीन,
बेहतरीन,
नये,
पुराने
जाने,
पहचाने,
और हाँ ’कुछ कुछ’ जाने पहचाने,
अन्जाने,
बेगाने,
दीवाने
काले-गोरे,
और कुछ न काले न गोरे,
कुछ कि आँखों में डोरे,


कोरे,
छिछोरे,
बेचारे,
थके से,
डरे से,
अपने से,
सपने से,
मेरे,
तेरे,
न मेरे न तेरे,
आँखें तरेरे,


कुछ शाम,
कुछ सवेरे,


घिनौने,
खिलौने,
कुछ तो जैसे
गैईया के छौने,


चेहरे ही चेहरे!


पर कभी कभी,
मिल नही पाता,
अपना ही चेहेरा!
अक्सर भाग के जाता हूँ मैं,


कभी आईने के आगे,
और कभी नज़दीक वाले चौराहे पर!


हर जगह बस अक्श है,परछाईं है,
सिर्फ़  भीड है और तन्हाई है !



Friday, September 16, 2011

मन इंसान का!





मन इंसान का,
अपना कभी पराया है,
मन ही है जिसने 
इंसान को हराया है,


मन में आ जाये तो,
राम बन जाये तू,
मन की मर्ज़ी ने ही तो,
रावण को बनाया है!




मन के बस में ही,है
इंसान और उसकी हस्ती 
मन की बस्ती में आबाद
यादों का सरमाया है,


मन है कभी चमकती 
धूप सा रोशन,
मन के बादल में ही तो 
नाउम्मीदी का साया है,


मन ही लेकर चला
अंजानी राहो पे,
मन ही है जिसने 
मुझे भटकाया है,  


मन ही वजह 
डर की बनता है कभी,
इसी मन ने ही 
मुझे हौसला दिलाया है,


कभी बच्चे की मानिंद
मैं हँसा खिलखिलाकर,
इसी मन ने मुझे कभी,
बेइंतेहा रुलाया है,


मन तो मन है,
इंसान का मन,
मन की मर्ज़ी,को,
भला कौन समझ पाया है? 





Sunday, July 31, 2011

वजह आँसुओं की...!


तुम्हें याद होगा,
अपना, बचपन जब,
हम दोनों खिल उठते थे,
किसी फ़ूल की मानिन्द!
अकसर बे वजह,
पर कभी कही गर मिल जाता था.
कोई एक..

कभी तितली या मोर का पंख,
कभी अगरबत्ती का रैपर,
कभी नई डाक टिकट,
कभी इन्द्रधनुष देख कर,
और कभी कभी तो,
सिर्फ़
मेंढक की टर्र टर्र,
सुन कर ही हो जाता था!
ये कमाल 

अरे कमाल  ही तो है,
दो मानव मनो का पुल्कित हो जाना,

तुम्हें याद होंगी,
वो तपती दोपहरें,
जब वो शहतूत का पेड,
मगन होता था,
कोयल की बात में,और,
मैं और तुम चुरा लेते थे,
न जाने कितने पल,
उस गर्म लू की तपिश से,

उफ़्फ़!!!!

तुम्हारे चेहरे का वो 
सुर्ख लाल  हो जाना,
मुझे तो याद है,अब तक...!


और वो एक दिन,
जुलाई का,
शायद ’छब्बीस’ थी,
सावन के आने में
देर थी अभी, 
पर तुम्हारे दर्द 
के बादल,बरस गये थे,
क्यों रोईं थीं तुम,
जब कि मालूम था,


कुछ नहीं बदलने वाला,

आज जब,ज़िन्दगी की शाम हैं,
जनवरी की तेरह,
मैने जला लिये हैं,
यादों के अलाव,
इस उम्मीद में कि
तपिश यादों की ही सही,
दे सके शायद कुछ सुकूँ,

वही गीली लकडियाँ 
उसी शहतूत की,
धूआँ दे रही हैं,शायद,
और ये वजह है,मेरे आँसुओं की
और मैं फ़िर सोचता हूँ, 
एक दम तन्हा,
क्यों रोईं थीं तुम उस दिन...........!

छब्बीस थी शायद, वो जुलाई की!








Saturday, July 23, 2011

हक़ीक़तन! एक बार फ़िर!



मैं तुम्हारा ही हूँ,कभी आज़मा के देखो.
अश्क़ का क़तरा हूँ,आँखों में बसाकर देखो.

गर तलाशोगे,तुम्हें पहलू में ही मिल जाऊँगा,
मैं अभी खोया नही हूँ,मुझको बुला कर देखो.

तुमको भूलूँ और,कभी याद ना आऊँ तुमको,
ऐसी फ़ितरत नहीं, यादों में बसा कर देखो.

मैं नही माँगता दौलत के खजाने तुम से,
मचलता बच्चा हूँ, सीने से लगा कर देखो.

मेरे चहेरे पे पड़ी गर्द से मायूस ना हो,
मैं हँसी रूह हूँ ,ये धूल हटाकर देखो.


Tuesday, January 25, 2011

बात अफ़साने सी!




चलो आज यूं ही कुछ कहने दो,
ज़िन्दगी बह रही है बहने दो।

पल खुशी के बहुत ही थोडे हैं,
गम के अफ़साने आज रहने दो।

फ़ूल तो फ़ूल हैं सूख जायेंगे,
सूखे पत्ते तो कब्र पे रहने दो।

बात दुनिया की रोज़ करते हैं,
आज तो दिल की बात कहने दो।

गैर की मेहरबानियाँ कमाल की हैं,
आज अपनों के दर्द सहने दो।

मैं अब खुद से मिल के डरता हूँ,
आईना आज मेरे आगे रहने दो।


सच कहुंगा तो वो बुरा मानेगें,
झूंठी और मीठी बात कहने दो।




Thursday, December 2, 2010

गुमशुदा की तलाश!

जिस ने सुख दुख देखा हो।

माटी मे जो खेला हो,
बुरा भला भी झेला हो।

सिर्फ़ गुलाब न हो,छाँटें 
झोली में हो कुछ काँटे। 

अनुभव की वो बात करे,
कोरा ज्ञान नहीं बाँटे।

मेले बीच अकेला हो,
ज्ञानी होकर चेला हो।

हर पल जिसने जीया हो,
अमिय,हलाहल पीया हो।

पौधा एक लगाया हो,
अतिथि देख हर्षाया हो।

डाली कोई न काटी हो,
मुस्काने हीं बाँटी हो।

सच से जो न मुकरा हो,
भरी तिजोरी फ़ुकरा हो।

मेहनत से ही कमाता हो,
खुद पे न इतराता हो।

अधिक नहीं वो खाता हो
दुर्बल को न सताता हो ।

थोडी दारु पीता हो,
पर इसी लिये न जीता हो।

अपने मान पे मरता हो,
इज़्ज़त सबकी करता हो।

ईश्वर का अनुरागी हो,
सब धर्मों से बागी हो।

हर स्त्री का मान करें
तुलसी उवाच मन में न धरे।

(डोल,गंवार........)

भाई को पहचाने जो,
दे न उसको ताने जो।

पैसे पे न मरता हो,
बातें सच्ची करता हो।

भला बुरा पहचाने जो,
मन ही की न माने जो।

कभी नही शर्माता हो,
लालच से घबराता हो।

ऐसा एक मनुज ढूँडो,
अग्रज या अनुज ढूँडो।

खुद पर ज़रा नज़र डालो,
आस पास देखो भालो।

ऐसा गर इंसान मिले,
मानो तुम भगवान मिलें!

उसको दोस्त बना लेना,
मीत समझ अपना लेना।

जीवन में सुख पाओगे,
कभी नहीं पछताओगे।


  

Saturday, November 20, 2010

बेउन्वान!

एक पुरानी रचना

पलकें नम, थी मेरी
घास पे शबनम की तरह.
तब्बसुम लब पे सजा था
किसी मरियम की तरह|

वो मुझे छोड गया था
संगे राह समझ
मै उसके साथ चला
हर पल हमकदम की तरह|


फ़रिस्ता मुझको समझ के ,
वो आज़माता रहा,
मैं तो कमज़ोर सा इंसान
था आदम की तरह|



ख्वाब जो देके गया ,
वो बहुत हंसी है मगर,
तमाम उम्र कटी मेरी
शबे गम की तरह।



Tuesday, October 12, 2010

ताल्लुकातों की धुंध!



पता नहीं क्यों,
जब भी मैं किसी से मिलता हूं,
अपना या बेगाना,
मुझे अपना सा लगता है!


और अपने अंदाज़ में


मैं खिल जाता हूं,
जैसे सर्दी की धूप,


मैं लिपट जाता हूं,
जैसे जाडे में लिहाफ़,


मै चिपक जाता हूं,
जैसे मज़ेदार किताब,


मैं याद आता हूं
जैसे भूला हिसाब,
(पांच रुप्पईया, बारह आना)  




मुझे कोई दिक्कत नहीं,
अपने इस तरीके से लेकिन,
पर अब सोचता हूं,
तो लगता है,


लोग हैरान ओ परेशान हो जाते हैं,
इतनी बेतकक्लुफ़ी देखकर,


फ़िर मुझे लगता है,
शायद गलती मेरी ही है,
अब लोगों को आदत नहीं रही,
इतने ख़ुलूस और बेतकल्लुफ़ी से मिलने की,


लोग ताल्लुकातों की धुंध में


रहना पसंद करते है,


शायद किसी
’थ्रिल’ की तलाश में


जब भी मिलो किसी से,
एक नकाब ज़रूरी है,
जिससे सामने वाला 


जान न पाये कि असली आप,
दरअसल,


है कौन? 



Tuesday, September 28, 2010

चांदनी रात और ज़िन्दगी!

खुशनुमा माहौल में भी गम होता है,
हर चांदनी रात सुहानी नहीं होती।

भूख, इश्क से भी बडा मसला है,
हर एक घटना कहानी नहीं होती।

दर्द की कुछ तो वजह रही होगी,
हर तक़लीफ़ बेमानी नही होती।

श्याम को ढूंढ के थक गई होगी,
हर प्रेम की मारी दिवानी नही होती।

शाम होते ही रात का अहसास,
विदाई सूरज की सुहानी नहीं होती।

हर इंसान गर इसे समझ लेता,
ज़िन्दगी पानी-पानी नहीं होती। 



Friday, September 17, 2010

हर मन की"अनकही"!

मैं फ़ंस के रह गया हूं!
अपने
जिस्म,
ज़मीर,
ज़ेहन,
और
आत्मा 
की जिद्दोजहद में,

जिस्म की ज़रूरतें,
बिना ज़ेहन के इस्तेमाल,
और ज़मीर के कत्ल के,
पूरी होतीं नज़र नहीं आती!

ज़ेहन के इस्तेमाल,
का नतीज़ा,
अक्सर आत्मा पर बोझ 
का कारण बनता लगता है!

और ज़मीर है कि,
किसी बाजारू चीज!, की तरह,
हर दम बिकने को तैयार! 

पर इस कशमकश ने,
कम से कम 
मुझे,
एक तोहफ़ा तो दिया ही है!

एक पूरे मुकम्मल "इंसान"की तलाश का सुख!


मैं जानता हूं,
एक दिन,
खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!

वैसे ही!
जैसे उस दिन,
बाबा मुझे घर ले आये थे,
जब मैं गुम गया था मेले में! 

Friday, August 20, 2010

खुद की मज़ार!



मैं तेरे दर से  ऐसे गुज़रा हूं,
मेरी खुद की, मज़ार हो जैसे!

वो मेरे ख्वाब में यूं आता है,
मुझसे ,बेइन्तिहा प्यार हो जैसे!

अपनी हिचकी से ये गुमान हुआ,
दिल तेरा बेकरार हो जैसे!

परिंद आये तो दिल बहल गया,
खिज़ां में भी, बहार हो जैसे!

दुश्मनो ने यूं तेरा नाम लिया,
तू भी उनमें, शुमार हो जैसे! 

कातिल है,लहू है खंज़र पे,
मुसकुराता है,कि यार हो जैसे!



Wednesday, July 14, 2010

वो लम्बी गली का सफ़र!



मैं हैरान हूं,
ये सोच के कि आखिर तुम्हें पता कैसे चला कि,
मैं तुमसे मोहबब्त करता था!


तुम्हारी सहेलियां तो मुझे जानती तक नहीं,


मैं हैरान हूं,
कि आखिर क्यों, तुम आ जाती थीं, छ्ज्जे पर,
जब मेरे गुज़रने का वख्त होता था,तुम्हारी गली से,


मैने तो कभी नज़र मिलाई नहीं तुमसे जान कर!


मैं हैरान हूं,
कि अब कहां मिलोगी तुम,एक उम्र बीत जाने के बाद,
क्यों कि मैं खुद तुम से नज़रें मिला कर कहना चाहता हूं,


हां! मैं मोहबब्त करता हूं तुमसे, बेपनाह! 


शायद मैं अब जान पाया इतने साल बाद के,
मैं क्यों साफ़ सडक छोड कर घर जाता था,
उस तंग और लम्बी गली से होकर!



Tuesday, July 13, 2010

अंखडियां!





अंखडियां!



अनकही, कही,
सुनी,अनकही,
भीगी अंखडियां!



सावन!
बैरी सावन!
भीगा घर आंगन,
तरसे मन!


खेल!
कराकोरम- कराची रेल

खरीदें पाकी ईरानी तेल

हम खेलें क्रिकेट खेल



हिंदी में और 'हाइकु' पढ़ने के लिए और इसके बारे में जानने के लिए Follow the link below! 


Saturday, July 3, 2010

जंगली फ़ूलो का गुलदस्ता!!

मैने सोच लिया है इस बार
जब भी शहर जाउंगा,

एक खाली जगह देख कर
सजा दूंगा अपने 

सारे ज़ख्म,

सुना है शहरों मे 


कला के पारखी 


रहते है,


सुंदर और नायब चीजों, 


के दाम भी अच्छे मिलते है वहां।

पर डरता हूं ये सोच कर,



जंगली फ़ूलो का गुलदस्ता, 




कोई भी नहीं सजाता अपने घर में!




खास तौर पे बेजान शहर में!



Wednesday, June 30, 2010

"अभी, कुछ बाकी है!"

आज शाम प्राइम टाइम पर हिन्दी खबरो का एक मशहूर खबरी चैनल जो सबसे तेज़ तो नहीं है,पर TRP में शायद आगे रहता हो, एक सनसनी खेज खबर दिखा रहा था। शायद! क्यों कि मैं,खुद कभी ये TRP और उसका असली खेल समझ नहीं पाया,क्यों कि शायद मेरी खुद की TRP कभी भी रसातल से धरातल पर नहीं पहुंच पाई।खैर!,मेरी TRP बाद में,उस खबर पर आते हैं।


खबर के मुताबिक नागपुर में, एक ७४ साल के बुज़ुर्ग ने अपने सिर में 9 mm की रिवाल्वर से तीन गोलियां ठोक डालीं। चैनल की खबर के मुताबिक यह बुज़ुर्ग बिमारीयों की वजह से निराश था, और शायद इसी लिये उसने ऐसा किया।अब बुज़ुर्ग तो ICU में है और शल्यचिकित्सा के बाद सकुशल बाकी की ’सज़ा-ए-ज़िन्दगी’ काटने की तैयारी कर रहा है। यह अपने आप में शायद काफ़ी आश्चर्यजनक घटना है,परंतु मेरे ज़ेहन में एक बचपन में सुनी कहानी कौन्ध गई।अब ये कहानी कितनी "सच" या "झूंठ" है, और इसका उपरोक्त खबर से कितना लेना देना है, ये मैं अपने विवेक को बिना कष्ट दिये सुधी पाठकों के निर्णय पर छोड देता हूं, और कथा कहता हूं।




कई युगों पुरानी बात है, एक साधु और उसका शिष्य,जो जीवन दर्शन को ज्योतिष और देशाटन के माध्यम से समझने में जुटे हुये थे, गांव-गांव,नगर-नगर घूम कर अपना जीवन व्यतीत करते हुये फ़िरते थे,और जो कुछ मिल जाता उससे अपनी ज़िन्दगी की गुजर बसर करते थे।ये वो समय था जब Education इतनी Formal नहीं थी कि उसके लिये पैसे लगते हों ,बस गुरु के साथ साथ फ़िरो, जीवन जैसा उसका है, जियो और बस gain the knowledge of life!(इतना सिम्पल नहीं था!शायद!) खैर हमें इस सब से क्या! 


एक दिन जब घूमते घूमते दोनों एक मरुस्थल को पार कर रहे थे,चेले का पैर एक मानव खोपडी से टकराया,उसने कौतूहल वश उसे उठा कर अपनी झोली में डाल लिया।रात में जब एक सराय में दोनों ने भोजन आदि करने के बाद आराम करने की मुद्रा पकडी तो शिष्य ने उचित समय जान कर गुरु से कहा,’ गुरू जी!,मस्तक रेखाओं को पढ कर भी मनुष्य का ,वर्तमान ,भविष्य और भूतकाल जाना सकता है, न? गुरु ने कहा हां हो तो सकता है।इस पर उत्साहित हो कर चेले ने लपक कर अपनी झोली से वही मानव खोपडी जो दोपहर उसने उठा कर अपनी झोली में डाल ली थी,निकाल लाया और गुरू जी के चरणों पर रख दी।निवेदन करते हुये बोला गुरू जी आज इस गोपनीय ञान से मुझे अवगत करा ही दो।आपसे निवेदन है कि,इस मानव कपाल की रेखाओं को पढकर इसका भूत,वर्तमान और भविष्य बांचों और मुझे भी सिखाओ।


(I am sure चेले ने उन दिनों प्रचलित तरीके से यह भी ज़रूर कहा होगा,Pleezzzzee!)


गुरू महान था और अपने शिष्य का अनुरोध मान कर बोला जरा प्रकाश की व्यवस्था कर।
कुछ देर रेखाओं की गहन भाषा में तल्लीन रहने के बाद, गुरू ने कहा,


"देश चोरी,मरुस्थल मृत्यु,अभी कुछ बाकी है!"


शिष्य ने कहा गुरू जी थोडा प्रकाश डालें।गुरू जी ने समझाते हुये कहा,इस व्यक्ति का भूतकाल कहता है, कि अपने देश(निवास स्थान) में चोरी करने के बाद वहां से भागते भागते, मरुस्थल में जा कर मृत्यु को प्राप्त होगा,जो इसका वर्तमान है, और इसका भविष्य कहता है कि इतने पर भी इसकी कर्म गति पूर्ण नहीं होगी,भविष्य में कुछ और भी घटित होगा।


शिष्य जो जाहिर है अभी उतना knowledgeable नहीं था बोला,’हे प्रभू, मृत्यु के बाद भी शरीर के साथ कुछ और क्या बाकी हो सकता है?’इस पर गुरू बोले न तो तू इतना पात्र है, और न मैं इतना ञानी कि तेरी इस शंका का  मैं समाधान कर सकूं अतः तेरी और इस कपाल की भालाई इसी में है, कि तू इस को इसके हाल पर छोड, और गुरू सेवा में लीन हो कर, जरा मेरे चरणों का चम्पन कर! 


शिष्य तुरंत आदेशानुसार गुरू जी की सेवा में जुट गया।कुछ ही पलों में गुरू जी निद्रा देवि की शरण में लीन हो गये।
पर चेला तो, चेला था पूरी रात नींद जैसे आंखों को छूने से भी मना कर रही हो! जागता रहा और सोचता रहा, अब क्या बाकी है, इस निर्जीव मनाव कपाल के लिये?क्या मृत्यु के बाद भी शरीर की कोई गति सम्भव है?क्या गुरू जी का ग्यान सच्चा है?क्या जो उन्होने कहा सच होगा?


इसी उधेड बुन में पूरी रात कट गई, पर न कोई उत्तर मिला और न मन को चैन, पर करता क्या बेचारा!प्रातः होते ही गुरु के आदेशानुसार सभी दैनिक कार्यों से निवृत हो कर ,जब चलने लगे तो गुरु जी की अनुमति लेकर कहा गुरु जी आप अग्रसर हों, मैं तुरंत ही आप का अनुसरण करता हूं। गुरू जी जो दयालु और अनन्य प्रेम करने वाले थे, शिष्य का कहा मान कर चल पडे। थोडी दूर ही पहुंच पाये थे कि हांफ़ता और भागता हुया चेला भी पीछे से आ पहूंचा और दोनों एक नये दिन और नई नगरी को चल पडे। 


दिन ढलने पर जब पुनः रात्रि विश्राम की बारी आई तो चेले ने गुरू जी की चरण सेवा प्रारंभ करते ही पूछा,
’गुरू जी क्या आपने कल जो कहा वो सत्य होगा?मेरा तात्पर्य उस मानव कपाल के बारे मैं है?
इस पर गुरु जी बोले वत्स तू यह शंका किस पर कर रहा है,मेरे कथन की सत्यता पर या ज्योतिष के ञान पर?
शिष्य बोला, प्रभु माफ़ करें इस समय तो दोनो पर ही शंका हो रही है। आपको याद होगा आज सुबह चलने से पहले मैं आपकी अनुमति लेकर कुछ समय बाद आपके साथ आया था!उस दौरान मैने उस कपाल को सराय की ओखली में डाल कर मूसल से कूट कूट कर चूर्ण बना दिया, और चूर्ण को नदी मे प्रवाहित भी कर दिया! अब बतायें गुरु जी इस स्थिति में अब क्या बाकी है, उस कपाल का? गुरू ने मंद मुस्कुराते हुये कहा ,जो बाकी था तूने माध्यम बन कर पूरा कर तो दिया। शायद अब कुछ बाकी न हो!


यह तो रही कहानी की बात! मेरी शंका यह है,कि मृत्यु के बाद की गति की बात बेमानी है! असल मुद्दा है,कि जीवन की सज़ा पाये हुये लोगों कि गति का क्या मार्ग है, आइये इस प्रयास में लगें। और हां उन बुजुर्ग के साथ मेरी संवेदनाये जिन्हे शायद जीवन की जेल से कुछ दिन की पैरोल तो मिल जाये (कोमा में) पर उनकी रिहाई तो मेडिकल साईंस और किस्मत ने मिल कर रोक ही दी,अभी और क्या बाकी है, इस विषय पर आजकल का ज्योतिष शायद उतना विकसित नहीं रहा!

Friday, May 14, 2010

’छ्ज्जा और मुन्डेर’

कई बार 
शैतान बच्चे की तरह
हकीकत को गुलेल बना कर
उडा देता हूं, 
तेरी यादों के परिंद
अपने ज़ेहन की, 

मुन्डेरो से,

पर हर बार एक नये झुंड की
शक्ल में 
आ जातीं हैं और
चहचहाती हैं  




तेरी,यादें


और सच पूछो तो 

अब उनकी आवाज़ें
टीस की मानिन्द चुभती सी लगने लगीं है।


मैं और मेरा मन 
दोनो जानते हैं,
कि आती है
तेरी याद,
अब मुझे,ये अहसास दिलाने कि


तू नहीं है,न अपने 


छ्ज्जे पर 



और न मेरे आगोश में।

Wednesday, May 5, 2010

प्लीज़!

इस बार ऐसा करना,


जब बिना बताये आओ,


किसी दिन

तो 
चुपचाप
चुरा कर ले जाना,

जो कुछ भी,
तुम्हें लगे,
कीमती,

मेरे घर,
जेहन,
या शख्शियत में,

प्लीज़!

गर ये भी न हो पाया,


(कि तुम्हे कुछ भी कीमती न लगे)


तो ,
मैं,


टूट जाउंगा,

क्यों कि सुना है,


मुफ़लिसी 


इन्सान को


खोखला कर देती है!



Monday, April 19, 2010

सच में!

धन और सम्पदा,


आपको

आसानी से मरने नहीं देगी ,


सच है.


परन्तु

सच ये भी है,

कि,

यह आप को,

आसानी से,






जीने भी नहीं देगी!


अब थरूर और मोदी को ही ले लो!





Thursday, February 11, 2010

इंसान होने की सजा!

मेरे तमाम गुनाह हैं,अब इन्साफ़ करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.

दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.

हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे, 
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.      

मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.

गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.



Friday, December 11, 2009

दर्द का पता!



कल रात मेरी जीवन साथी संजीदा हो गईं,
मेरी कविताएं पढते हुये,


उसने पूछा,


क्या सच में! 


आप दर्द को इतनी शिद्द्त से महसूस करते हैं? 
या सिर्फ़ फ़लसफ़े के लिये मुद्दे चुन लेतें हैं!  


दर्द की झलक जो आपकी बातों में है,
वो आई कहां से?


मैने भी खूबसूरती से टालते हुये कहा,


दर्द खजाने हैं,इन्हें छुपा कर रखता हूं,
कभी दिल में,कभी दिल की गहराईओं में


खजानों का पता गर सब को बताता,
तो अब तक कब का लुट गया होता!


मेरे किसी दोस्त ने कभी बहुत ही सही कहा था!


’ये फ़कीरी लाख नियामत है, संभाल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगें ज़माने वाले!’