चोट खा कर मुस्कुराना चाहता हूँ,
क्या करूँ रिश्ते निभाना चाह्ता हूँ!
ये रंगत-ए- महफ़िल तो कुछ ता देर होगी,
मैं थक गया हूँ घर को जाना चाहता हूँ!
तुम मेरी यादों में अब हर्गिज़ न आना,
मैं भी तुम को भूल जाना चाहता हूँ!
चल पडा हूँ राह-ए-शहर-ए-आबाद को अब,
आदमी हूँ मैं भी इक घर बसाना चाह्ता हूँ!
बस करो अब और न तोहमत लगाओ,
मैं भी एक माज़ी सुहाना चाहता हूँ!
PS:
न जाने क्युँ जब कि आप सब पढने वलों ने इतनी तव्व्जों से पढा और सराहा है, दिल में आता कि, आखिरी से पहले वाला शेर कुछ ऐसे कहा जाये-
"चल पडा हूँ राह-ए-शहर-ए-आबाद को मैं ,
आशिक तो हूँ पर इक घर बसाना चाह्ता हूँ!"
वाह!!!!!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर गज़ल...
बस करो अब और न तोहमत लगाओ,
मैं भी एक माज़ी सुहाना चाहता हूँ!
लाजवाब शेर..
अनु
मत्ला ही लाजवाब! क्या बात है...बहुत ख़ूब
ReplyDeleteलाजवाब गज़ल !
ReplyDeleteआभार
चोट खा कर मुस्कुराना चाहता हूँ,
ReplyDeleteक्या करूँ रिश्ते निभाना चाह्ता हूँ!...
कितना बचा क्या खोया .... इससे परे चाह बनी रहती है ------- निर्वाण तक !
बहुत सुंदर!
ReplyDeleteसुंदर गज़ल...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
ReplyDeleteतुम मेरी यादों में अब हर्गिज़ न आना,
मैं भी तुम को भूल जाना चाहता हूँ! ...
उनको भूलना आसान कहाँ ... लाजवाब शेर है ये कमाल की गज़ल ...
बुढा गई हूँ .भूल जाती हूँ.आकर देखा तो फिर वापस याद आया यह तो 'आपका' ब्लॉग है.उफ़! डाईबितिज़ ज्यों ज्यों पुरानी होती जा रही है.मेरी याददाश्त कमजोर होती जा रही है.
ReplyDeleteखूबसूरत रचना है.इसे नज्म कहते हैं,कविता या गजल मुझे नही मालूम.पर..गे है.मैंने गुनगुनाया. गा सकी.अर्थात गेयता का गुण है.
चोट खा कर मुस्कुराना चाहता हूँ,
क्या करूँ रिश्ते निभाना चाह्ता हूँ!
बस करो अब और न तोहमत लगाओ,
मैं भी एक माज़ी सुहाना चाहता हूँ!
रिश्तों को निभाना चाहते हो तो...चोट और तोहमतों से ना डरो.निभाए जाओ.नही जानती खुद के अनुभवों को लिखा है या दुनिया के? खुद के हैं तो..... सुहाना माजी मिले....आमीन.
ख़ूबसूरती से जिंदगी को जी लेना भी एक कला है जो हमारी रचनाओं में झलकने लगती है.यहाँ भी झलक रही है. :)
तुम मेरी यादों में अब हर्गिज़ न आना,
ReplyDeleteमैं भी तुम को भूल जाना चाहता हूँ!
Wah kya baat hai!
चरफर चर्चा चल रही, मचता मंच धमाल |
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति आपकी, करती यहाँ कमाल ||
बुधवारीय चर्चा-मंच
charchamanch.blogspot.com
कुश भाई, रचना पढ़ी और कमेंट बॉक्स के ऊपर लिखा भी पढ़ा, यही कह सकता हूँ कि just feeling blessed to read such an article.
ReplyDeleteबस करो अब और न तोहमत लगाओ,
ReplyDeleteमैं भी एक माज़ी सुहाना चाहता हूँ!
sunder
rachana
बहुत सुंदर गज़ल...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गज़ल.....हरेक शेर पुख्ता है.तुम मेरी यादों में अब हर्गिज़ न आना,
ReplyDeleteमैं भी तुम को भूल जाना चाहता हूँ!वाह!!
चल पडा हूँ राह-ए- शहर-ए-आबाद को ,
ReplyDeleteआदमी हूँ मैं भी इक घर बसाना चाह्ता हूँ!
...बहुत खूब! बेहतरीन गज़ल...
बस करो अब और न तोहमत लगाओ,
ReplyDeleteमैं भी एक माज़ी सुहाना चाहता हूँ!
बढ़िया ग़ज़ल कही है .
आप सब पारखी पाठकों को किन लफ़्ज़ों से शुक्रिया कहूँ? नाचीज़ तुकबन्दी गज़ल हो गई आप सब के हुस्न-ए- नज़रिये से! तहे दिल से शुक्रिया,दाद और होसला अफ़ज़ाई का!
ReplyDeleteचोट खा कर मुस्कुराना चाहता हूँ,
ReplyDeleteक्या करूँ रिश्ते निभाना चाह्ता हूँ!
वाह वाह बहुत सुंदर गज़ल.
laajawab!
ReplyDelete