अपनी नज़रों से जब जब मैं गिरता गया,
मेरा रुतबा ज़माने में बढता गया!
मेरे अखलाक की ज़बरूत घटती गई,
पैसा मेरी तिजोरी में बढता गया!
मेरे होंठों से मुस्कान जाती रही,
मेरा एहतिराम महफ़िल में बढता गया!
सब सितारे मुझे मूहँ चिढाते रहे,
मैं सिम्त-ए-तारीकी बढता गया!
बहुत बढ़िया..............
ReplyDeleteक्या करें....ज़माना खराब है.....................
सादर.
बढ़िया...
ReplyDeleteबहुधा जमाने की नजर में उठने के लिए खुद की नजर में गिरना पड़ता है, लेकिन वो उठाना भी कोई उठाना है यार?
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब पर नज़रों से नहीं गिरना था
ReplyDelete@ संगीता स्वरुप (गीत) जी! काश! आप की सलाह उन तक पहूँच पाती जिन के behalf पे मैंने यह रचना करने का प्रयास किया है!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteफ़िलहाल-- "निर्मल सच"
ReplyDeletenice
ReplyDeleteअपनी नज़रों से जब जब मैं गिरता गया,
ReplyDeleteमेरा रुतबा ज़माने में बढता गया! .... एक जगह पाने के लिए मैं खुद से दूर होता गया
मेरे होंठों से मुस्कान जाती रही,
ReplyDeleteमेरा एहतिराम महफ़िल में बढता गया! ...
सच है की अपने आप को मारना पढता है ... नीचता पे उतरना पढता है नाजायज पैसा कमाने के लिए और तभी आज के हालात में नसान ऊंचा उठ पाता है ..
बहुत बढि़या प्रस्तुति।
ReplyDeleteवो नज़रों से तो गिरे ही ....अब निष्काषित भी हो गए
ReplyDeleteबेहद खुबसूरत
ReplyDelete(अरुन =arunsblog.in)