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Sunday, April 22, 2012

निर्मल सच


अपनी नज़रों से जब जब मैं गिरता गया,
मेरा रुतबा ज़माने में बढता गया! 

मेरे अखलाक की ज़बरूत घटती गई,
पैसा मेरी तिजोरी में बढता गया!


मेरे होंठों से मुस्कान जाती रही,
मेरा एहतिराम महफ़िल में बढता गया!

सब सितारे मुझे मूहँ चिढाते रहे,
मैं सिम्त-ए-तारीकी बढता गया!


13 comments:

  1. बहुत बढ़िया..............

    क्या करें....ज़माना खराब है.....................

    सादर.

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  2. बहुधा जमाने की नजर में उठने के लिए खुद की नजर में गिरना पड़ता है, लेकिन वो उठाना भी कोई उठाना है यार?

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  3. वाह ...बहुत खूब पर नज़रों से नहीं गिरना था

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  4. @ संगीता स्वरुप (गीत) जी! काश! आप की सलाह उन तक पहूँच पाती जिन के behalf पे मैंने यह रचना करने का प्रयास किया है!

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  5. फ़िलहाल-- "निर्मल सच"

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  6. अपनी नज़रों से जब जब मैं गिरता गया,
    मेरा रुतबा ज़माने में बढता गया! .... एक जगह पाने के लिए मैं खुद से दूर होता गया

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  7. मेरे होंठों से मुस्कान जाती रही,
    मेरा एहतिराम महफ़िल में बढता गया! ...

    सच है की अपने आप को मारना पढता है ... नीचता पे उतरना पढता है नाजायज पैसा कमाने के लिए और तभी आज के हालात में नसान ऊंचा उठ पाता है ..

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  8. बहुत बढि़या प्रस्‍तुति।

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  9. वो नज़रों से तो गिरे ही ....अब निष्काषित भी हो गए

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  10. बेहद खुबसूरत
    (अरुन =arunsblog.in)

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