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Saturday, July 27, 2013

दुआ का सच!

ज़ख्म देता है कोई,मुझे कोई दवा देता है,
कौन ऐसा है,यहाँ जो मुझको वफ़ा देता है!


ये बारिशें भी कब यहाँ साल भर ठहरतीं है,
हर नया मौसम मिरे ज़ख्मों को हवा देता है।



तेरी बातें न करूँ मैं, अगर दीवारों से,
है कोई काम?जो दीवानों को मज़ा देता है!


दुश्मनों से ही है अब एक रहम की उम्मीद,
है कोई दोस्त, जो, मरने की दुआ देता है?

8 comments:

  1. ये बारिशें भी कब यहाँ साल भर ठहरतीं है,
    हर नया मौसम मिरे ज़ख्मों को हवा देता है।
    sunder bhav
    rachana

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    1. आप का शुक्रिया!पसंद करके लिये।

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  2. ये बारिशें भी कब यहाँ साल भर ठहरतीं है,
    हर नया मौसम मिरे ज़ख्मों को हवा देता है..

    बहुत लाजवाब शेर ... ओर अंतिम शेर भी कमाल का है ... ज़माने की हकीकत बयाँ कर दी इनमें आपने ...

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    1. दिगम्बर भाई! आपकी हौसला अफ़ज़ाई मिली,लिखना सफ़ल हुआ, शुक्रिया।’सच में’ के प्रति प्रेम बनाये रखें।

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  3. बहुत ही गहरे और सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....

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    1. आपका शुक्रिया,रचना के भाव तक पहुँच कर विचारों से अवगत करना ने लिये। "सच में’ पर आतें रहें!

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  4. बहुत खूब लिखा आपने | आभार

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    1. आपका आभार के आपने पसंद किया और समय निकाल कर प्रशंसा की!

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