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Saturday, September 21, 2013

फ़क़ीरी

खा़र होने की भी कीमत चुकाई है मैने
गुलों के जख्म जिगर में छुपाये फिरता हूँ!


कभी ज़ुल्फ़ों की छाँव में भी पैर जलते हैं
कभी सेहरा को भी सर पे उठाये फ़िरता हूँ!


अजीब फ़िज़ा है शहर की ये मक़तल जैसी
बेगुनाह हूँ मगर मूँह छुपाये फ़िरता हूँ!


लूट लेंगे सब मिल कर शरीफ़ लोग है ये,
शहर-ए- आबाद में फ़कीरी बचाये फ़िरता हूँ!

7 comments:

  1. आपकी रेंज के कायल हो गये, कुश भाईजी। वाकई जबरदस्त लिखा है।

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    1. "अंगूठा टेक" को Convocation का invitation? क्या भाई संजय तारीफ़ के और भी तरीके है, जैसे लगातार आते रहना,दोस्तों को बताते रहना एवं very nice लिख के जाते रहना।
      आपकी हौसला अफ़ज़ाई, बहुत कीमती है इस यात्रा में.आभार!

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  2. लूट लेंगे सब मिल कर शरीफ़ लोग है ये,
    शहर-ए- आबाद में फ़कीरी बचाये फ़िरता हूँ!

    लाज़वाब शेर लगा ये

    वैसे आप की तारीफ़ करने को शब्द कम ही होते हैं हमारे पास ।
    दो पंक्तियाँ हमारे ज़ेहन में भी आ गयीं कच्ची-पक्की सी ।
    आदमियत खो गई, आदम हताश है
    हुज़ूम-ए-आदम में आदमी की तलाश है

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    1. आपकी तारीफ़ हमेशा मायने रखती है! शुक्रिया, मन्ञ्जूषा जी!

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  3. Replies
    1. भाई खुशविन्दर, आपका शुक्रिया,"सच में" पर आकर,अपने विचार से इसे नवाज़ ने के लिये!

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