"सच में!"
दिल की हर बात अब यहाँ होगी, सच और सच बात बस यहाँ होगी
ये सब हैं चाहने वाले!और आप?
Thursday, March 5, 2009
कुछ और मुक्तक
तुम
रुठे ,हम छूटे.
अच्छा हुआ,
धुन्धले आईने टूटे.
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गुनाहे बे लज़्ज़त,
जुर्म बे मज़ा,
कैसा मुकदमा
काहे की सज़ा.
Saturday, February 28, 2009
बस ऐसे ही !
मैं तुम्हारा नहीं हूँ ,ये बात तो मैं भी जानता हूँ.
मेरी तकलीफ ये है कि,
ये
बात तुम कहते क्यों हो.
ये तमाम ज़ख्म तो मोहब्बत में मैंने पाए हैं,
अजीब शक्स हो तुम,
इस दर्द को
सहते क्यों हो
.
तेरी यादों पे जब मुझे कोई इख्तियार नहीं,
ये बताओ के फिर तुम मेरे दिल में रहते क्यों हो .
Wednesday, February 11, 2009
ज़ख़्मों की तहरीरें
हाथ
में
इबारतें
,
लकीरें
थी
सावांरीं
मेहनत
से
तो
वो तकदीरे थी
.
जानिबे
मंज़िल
-ए
-
झूंठ
,
मुझे
भी
जाना
था
,
पाँव
में
सच
की
मगर
जंज़ीरें
थी
.
मैं
तो
समझा
था
फूल
,
बरसेंगे
,
उनके
हाथों
में
मगर
शमशीरें
थी
.
खुदा
समझ
के
रहे
स
ज़दे
में
ताउम्र
जिनके
,
गौर
से
देखा
तो
, वो
झूंठ
की ताबीरे॑
थी
.
पिरोया
दर्द
के
धागे
से
तमाम
लफ़्ज़ों
को
,
मेरी
ग़ज़लें
मेरे
ज़ख़्मों
की
तहरीरें
थी
.
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On 12 Feb 09.
खुदा
समझ
के
रहे
स
ज़दे
में
ताउम्र
जिनके
,
गौर
से
देखा
तो
, वो
झूंठ
की ताबीरे॑
थी
.
इस शेर के दो नये अंदाज़ पेश करता हूं:
खुदा बना के जिन्हें,किया ता उम्र सज़दा,
वख्त-ए-आख़िर पाया,वो झूंठ की ताबीरें थी
और एक इस तरह के:
दोस्तो को खुदा बना के,किया उम्र भर सज़दा,
वक़्त-ए-बद में ये जाना,वो झूंठ की ताबीरें थीं.
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