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Wednesday, February 11, 2009

ज़ख़्मों की तहरीरें

हाथ में इबारतें,लकीरें थी
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरे थी. 
  
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था, 
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थी. 
 
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे, 
उनके हाथों में मगर शमशीरें थी. 
 
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थी. 
 
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को, 
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थी. 

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On 12 Feb 09.
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थी. 

इस शेर के दो नये अंदाज़ पेश करता हूं:

खुदा बना के जिन्हें,किया ता उम्र सज़दा,
वख्त-ए-आख़िर पाया,वो झूंठ की ताबीरें थी

और एक इस तरह के:

दोस्तो को खुदा बना के,किया उम्र भर सज़दा,
वक़्त-ए-बद में ये जाना,वो झूंठ की ताबीरें थीं.




Monday, February 9, 2009

दर्द की मिक़दार और उसकी मज़बूरी.(Sequel)


'दर्द की मिक़दार'(post @25.1.09 के सिलसिले मे आज लिखे गये नये शेर:

मचलता बच्चा भी जानता है,ग़रीब माँ की मज़बूरी,
ज़िद हो,के ना हो पूरी,कुछ देर में बहलना होगा. 
 
ये रास्तों का सच नही,दस्तूर-ए-दुनियाँ है, 
अपनी ठोकर से जो गिरते है,उन्हें खुद ही संभालना होगा.


Sunday, February 8, 2009

"झूंठ के पावं"


वो देखो दौड़ के मंज़िल पे जा पहुँचा,
कौन कहता है के,'झूंठ के पावं' नही होते.

मैं चीख चीख के सब को बताता रह गया,
फिर ना कहना,'दीवारों के भी कान' होते हैं.

सारे हाक़िम लपक कर उसके पावं छू आए,
तब मैं जान गया,'क़ानून के हाथ' लंबे हैं.




Sunday, February 1, 2009

हक़ीक़तन!


मैं तुम्हारा ही हूँ,कभी आज़मा के देखो.
अश्क़ का क़तरा हूँ,आँखों में बसाकर देखो.

गर तलाशोगे,तुम्हें पहलू में ही मिल जाऊँगा,
मैं अभी खोया नही हूँ,मुझको बुला कर देखो.

तुमको भूलूँ और,कभी याद ना आऊँ तुमको,
ऐसी फ़ितरत नहीं, यादों में बसा कर देखो.

मैं नही माँगता दौलत के खजाने तुम से,
मचलता बच्चा हूँ, सीने से लगा कर देखो.

मेरे चहेरे पे पड़ी गर्द से मायूस ना हो,
मैं हँसी रूह हूँ ,ये धूल हटाकर देखो.