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Wednesday, August 19, 2009

वफ़ा की दुआ!

ख्याब शीशे के हैं, किर्चों के सिवा क्या देगें,
टूट जायेंगें तो, ज़ख्मों के सिवा क्या देगें

ये तो अपने ही मसलो मे उलझें है अभी
खुद दर्द के मारे है, वो मुझको दुआ क्या देगें.

सारे ज़माने में,मशहूर है बेवफ़ाई उनकी,
संगदिल लोग है,ये हम को वफ़ा क्या देगें .

6 comments:

  1. ख्याब शीशे के हैं, किर्चों के सिवा क्या देगें,
    टूट जायेंगें तो, ज़ख्मों के सिवा क्या देगें


    bahut hi khub rachanaa

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  2. ख्याब शीशे के हैं, किर्चों के सिवा क्या देगें,
    टूट जायेंगें तो, ज़ख्मों के सिवा क्या देगें

    खूबसूरत अभिव्यक्ति।

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  3. बहुत सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये शानदार रचना बहुत अच्छा लगा!
    मेरे नए ब्लॉग पर आपका स्वागत है -
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com

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  4. ये तो अपने ही मसलो मे उलझें है अभी
    खुद दर्द के मारे है, वो मुझको दुआ क्या देगें.


    .....
    poem has awesome refelction !!

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  5. hi thank you for visiting my blog. I add new Hindi poems to the Hindi category. Moti Jeevan ke. AApki kavita bahut umda hai. thode shabd bahut kuch keh dete hain. aati rahungi.

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  6. "संगदिल लोग हैं ..." एक और सच का सामना करती कविता ...ज़िंदगी के दर्द समेटे हुए..

    http://shamasansmaran.blogspot.com

    http://shama-baagwaanee.com

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