आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा.
जो हैं गहराई में, मिलुगां उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।
दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।
जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।
मेरी आज़ाद पसन्दी का, अश्क है एक सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
बहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteआबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा.
बहुत बहुत आभार
बहुत सुन्दर वर्णन, कविता के माध्यम से.
ReplyDeletewah bahut dino baad yahan aane ka mauka mila, mann vibhor ho gaya. aapi kavitayen bahut hi sundar hain. kayi baar jab mann yuhi bhatak jata hai to yahan aa kar thanhar jata hai. sach me. :)
ReplyDeleteblog par aate rahiyega. shukriya
मेरी आज़ाद पसन्दी का, अश्क है एक सबूत,
ReplyDeleteखारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।
जान ले ली मेरे दोस्त ! बहुत अच्छे
आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
ReplyDeleteमेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा. khoobsurat khyaal na hi dariya ki fitrat hoti hai loutna or na kismat..ret pe pani ke nishan chor jata hai...